Sunday, September 22, 2019

सैकड़ों लाशों से भर गई थी खूनी झील, आज भी नजर आता है सिर कटा सवार !

दिल्ली...कई सल्तनतों और बादशाहत की गवाह रही है दिल्ली। इसी दिल्ली के इतिहास को समझने के लिए 15 सितंबर रविवार को शामिल हुए 'सैर-ए-दिल्ली' https://www.facebook.com/SaireDilli/ के Northern Ridge ट्रेक में। इसमें आज सवा दो हजार सालों के इतिहास का साक्षी बनना था। इस ट्रेक में शामिल थे फ्लैगस्टॉफ टॉवर, गार्ड हाउस, खूनी झील, चौबुर्जी मस्जिद, पीर गायब, अशोक स्तंभ और म्यूटिनी मेमोरियल। ये ट्रेक सुबह 9 बजे शुरू हुआ और 12 बजे खत्म हुआ जिसमें 5 किलोमीटर की पैदल हेरिटेज वॉक हुई। 
Sair E Dilli केे साथ हेरिटेज वॉक
शनिवार रात को एक मित्र के साथ पहाड़गंज में रुकना हुआ था। रविवार सुबह नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे जहां सभी ट्रेकर्स को मिलना था। ठीक 9 बजे सभी नॉर्दन रिज के उस ट्रेक पर चल दिए जहां सम्राट अशोक के काल से लेकर अंग्रेजों के काल तक का कालजयी इतिहास सामने आने वाला था। 

विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से निकलकर हम कमला नेहरू या नॉर्दन रिज https://en.wikipedia.org/wiki/Delhi_Ridge  की तरफ बढ़े। यहां सबसे पहले हमें दिखा फ्लैगस्टॉफ टॉवर, जो इस रिज का सबसे ऊंचा स्थान था। यहां अंग्रेजों ने एक टॉवर बनवाया था जहां से लाल किले की तरफ निशाना लगाते हुए तोपें लगी रहती थीं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने 11 मई 1857 को इसी फ्लैगस्टॉफ टॉवर को पहला निशाना बनाया था जहां कई अंग्रेज अपनी जान बचाने के लिए इसमें छिप गए थे। उस समय यह दिल्ली में अंग्रेजों की आर्मी का केंद्र था और इसके पास ही सिविल लाइन में अंग्रेजों की बस्ती बसी हुई थी। 

 फ्लैगस्टॉफ टॉवर
यहां का इतिहास समझ हम आगे बढ़े तो बंदरों ने हमारा रास्ता रोक लिया। इसके बाद थोड़ा आगे बढ़े तो गार्ड हाउस मिला। यह गार्ड हाउस उस समय दिल्ली के चारों तरफ निगाह रखने के लिए बनाए गए थे। यह गोथिक शैली में बना एक शानदार स्ट्रक्चर था जो अभी भी दो सौ सालों के इतिहास को अपने में समेटे नजर आ रहा था।

गार्ड हाउस
यहां से आगे बढ़े तो मुख्य सड़क से अलग हटकर जंगल की पगडंडियों में उतर गए। चलते-चलते एक झील सी दिखाई दी जिसके चारों तरफ जाली लगी थी। मुझे महसूस हो रहा था कि यह कोई साधारण झील नहीं है। मेरा अंदाजा सही निकला और जब उसका इतिहास हमारे गाइड ने बताया तो सबके होश उड़ गए। 

खूनी झील
इसका नाम खूनी झील था। कहा जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय इस झील में विद्रोहियों की सैकड़ों लाशों को इसमें पटक दिया गया था। कहा जाता है कि इतनी लाशों के खून से इसका रंग लाल हो गया था। इसके बाद यह एक हांटेड जगह बन गई और यहां सुसाइड के केस होने लगे। यहां रात में एक सफेद फ्रॉक पहने लड़की अक्सर लोगों को दिखती है तो एक सिर कटा सवार भी लोगों को आतंकित करता है। यह जगह परालौकिक घटनाओं के एक्सपेरिमेंट की भी जगह बनी हुई है। 


इसके बाद आगे बढ़े तो रास्ते में मिली चौबुर्जी मस्जिद, जिसे फिरोजशाह तुगलक https://en.wikipedia.org/wiki/Firuz_Shah_Tughlaq ने 14वीं सदी में बनवाया था। फिरोजशाह की यह शिकारगाह थी और इसमें ही उसने मस्जिद बनवाई थी जिसमें चार बुर्ज थीं। 1857 में इस मस्जिद की तीन बुर्ज अंग्रेजों ने तोपों से उड़ा दी। अब सिर्फ एक बुर्ज ही यहां बची है। 


चौबुर्जी के बाद कमला नेहरू रिज के पार्ट से निकलकर अब दाखिल होते हैं कभी सिर्फ अंग्रेजों की बस्ती रही सिविल लाइन में। 


यहां के हिंदू राव कैंपस में पीर गायब के नाम से दो मंजिला स्ट्रक्चर खड़ा है जो अब ध्वस्त हालत में है। इसे भी फिरोजशाह तुगलक ने बनवाया था। माना जाता कि यह जगह फिरोजशाह तुगलक की शिकारगाह के साथ वेधशाला भी थी। इसके कुछ प्रमाण इसकी दूसरी मंजिल पर दिखाई देते हैं। यहां एक पीर भी बसते थे जिनकी यह जगह चिल्लागाह बनी। बाद में एक रात वह अचानक से गायब हो गए तो इसका नाम पड़ गया पीर गायब। 


पीर गायब से आगे चले तो दिखा तो मेरठ-दिल्ली के नाम से फेमस अशोक स्तम्भ https://en.wikipedia.org/wiki/Pillars_of_Ashoka। वैसे तो भारत में ईसा पूर्व तीसरी सदी के महान सम्राट अशोक के 11 अशोक स्तम्भ हैं जिनमें से 10 में लेख खुदे हुए हैं। उनमें से एक यह भी है। यह स्तंभ मूल रूप से मेरठ में स्थापित था लेकिन फिरोजशाह तुगलक के काल में इसे मेरठ से दिल्ली लाया गया था। 

अशोका पिलर
इसके बारे में एक रोचक कहानी है। मूल रूप से यह काफी बड़ा था और जब इसे मेरठ से दिल्ली लाया गया तो यमुना पार कराने के लिए एक स्पेशल नाव बनाई गई। इसे मखमल में लपेटकर लाया गया था जिससे कि इसकी चमक पर कोई फर्क नहीं पड़े। जब शाम के समय इस पर सूरज की रोशनी पड़ती थी तो यह सोने की तरह चमकता था। फिरोजशाह तुगलक इसे देखकर हैरान था। उसने कई विद्वानों से इसके बारे में पूछा तो किसी ने इसे भीम की लाट बताया तो किसी ने कुछ और। कोई भी विद्वान इस पर लिखे लेख को उस समय नहीं पड़ पाया था। फिरोजशाह तुगलक को अपने जीवनकाल में कभी यह पता नहीं लग पाया कि जिस स्तम्भ को वह अपने पूर्वजों का समझ रहा है, वह दरअसल 1700 साल पहले बनाया गया सम्राट अशोक का स्तम्भ है।
दिल्ली-मेरठ अशोका पिलर
1857 के गदर के समय इसे भी तोप से उड़ा दिया गया था। बाद में इसके पांच टुकड़ों को जोड़कर फिर से इसे यहां लगाया गया। 

इसके बाद पहुंचे हम अपने ट्रेक के अंतिम स्थल सैन्यद्रोह स्मारक या म्यूटिनी मेमारियल या फतेहगढ़ https://en.wikipedia.org/wiki/Mutiny_Memorial। इस मेमोरियल को अंग्रेजों ने 1863 में बनवाया था। 1857 के गदर में लड़ाई में मारे गए अपने सैनिक और अफसरों की याद में यह बनवाया गया था। 

म्यूटिनी मेमोरियल
यह गोथिक शैली के आर्किटेक्चर का बेहतरीन नमूना है। 30 मई से 20 सितंबर 1857 के बीच मारे गए अंग्रेजों की सेना में अंग्रेज और स्थानीय अफसर और सैनिकों की याद में यह बना है। 


यहां इस दौरान अंग्रेजी सेना के 186 ब्रिटिश और 63 भारतीय अफसर, 1982 ब्रिटिश और 1623 भारतीय गैर अफसर और सैनिक या तो मारे गए, या मिसिंग हो गए या अपहरण कर लिए गए थे। 

म्यूटिनी मेमोरियल
इस तरह 3 घंटे में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर ईसा की 19वीं शताब्दी के इतिहास को अपनी आंखों के सामने से गुजरते और महसूस करते देखा। 


इस ट्रिप में 200 रुपये ट्रेक आर्गेनाइजर को दिए, 20 रुपये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन तक, 15 रुपये का पूड़ी का नाश्ता, 20 रुपये की पानी की बॉटल और 20 रुपये में ई-रिक्शा से पहाड़गंज वापसी। इस तरह 275 रुपये में दिल्ली जैसे मंहगे शहर में अपना ट्रेक हो गया। 

Shyam Sundar Goyal
Delhi

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Friday, September 13, 2019

जब आधी रात को छोड़ना पड़ी रुकने की जगह, अनजान रास्तों पर बिना हैडलाइट के 110 की स्पीड पर बाइकिंग

गुजरात के जामनगर से निकलकर हड़प्पा संस्कृति की भारत में सबसे बड़ी साइट धौलावीरा देखने के लिए  मैँ निकला जो कच्छ के रण के बीच में था। रास्ते में एक जगह पेट्रोल और पैसे खत्म हो गए तो किसी तरह उसकी व्यवस्था की। 

रास्ता ही जिंदगी है, जिंदगी ही रास्ता है
जामनगर से सुबह 7 बजे निकलना हुआ। दोपहर 12 बजे जामनगर से 167 किलोमीटर दूर सामख्याली पहुंचा। यहां से धौलावीरा जाने का रास्ते था लेकिन वह मुझे पता नहीं चल पाया था। मैप में भचाऊ से धौलावीरा जाने का रास्ता दिख रहा था जो शार्टकट था इसलिए मैं यहां से आगे निकल लिया। सामख्याली से 17 किलोमीटर आगे भचाऊ था। यहां दैनिक भास्कर के रिपोर्टर से पहले ही बात हो गई थी तो वह मुझे अपने ऑफिस ले गए। यहां आकर पता लगा कि भचाऊ वाला रास्ता तो अब बंद हो गया है। वापस सामख्याली से जाना पड़ेगा या फिर भुज से जाना होगा। 

भचाऊ में दैनिक भास्कर के मित्र
खैर अब आगे तो बढ़ चुके थे इसलिए पीछे लौटने का सवाल ही नहीं था। यहां पर थोड़ा आराम कर साढ़े 3 बजे निकले और  साढ़े 4 बजे गांधीधाम पहुंचे जो भचाऊ से 35 किलोमीटर दूर था। 

गांधीधाम 

गांधीधाम से 13 किलोमीटर दूर कांडला पोर्ट था तो वहां भी चल दिए। रास्ते में दोनों तरफ समुद्री पानी भरा था जिसमें नमक बन रहा था। साथ ही यहां सैकड़ों की संख्या में साइबेरियन प्रवासी सारस पक्षी दिखे जो गुलाबी कलर के थे और बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रहे थे। 

कांडला सी पोर्ट 

कांडला से वापस गांधीधाम आना पड़ा और फिर गांधीधाम से 55 किलोमीटर दूर मुंद्रा पोर्ट पहुंचा। यहां पर अडानी ग्रुप की ऑयल की रिफायनरी हैं। यहां हर तरफ लाल ही लाल रंग नजर आता है। मुंद्रा तक पहुंचते पहुंचते 7 बज चुके थे और अभी भुज काफी दूर था। मुंद्रा से 52 किलोमीटर की दूरी तय कर सवा 8 बजे मांडवी पहुंचा जो एक खूबसूरत बीच था। बीच के किनारे नारियल के पेड़ों की श्रंखला बनी हुई थी। यहां तेज हवा के कारण बहुत सारी पवन चक्कियां भी लगी हुई थीं। यहां का सनसेट बहुत ही खूबसूरत होता है। उस सनसेट के कई फोटो मैंने वहीं एक लोकल बंदे से लिए। 

मांडवी बीच

यहां ऐसा लग रहा था कि बस यहीं रुक जाएं। बाइक में लाइट भी नहीं थी। बाइक की हैडलाइट दो दिन पहले हुए एक्सीडेंट में खराब हो गई और यहां रास्ते में उसे ठीक कराने के पैसे भी नहीं थे। शरीर भी थक गया था लेकिन यहां रुकने से पूरे एक दिन की बर्बादी होनी थी, सो आगे चलना पड़ा। 

इसके बाद शुरू हुई जिंदगी की सबसे खतरनाक राइड। मांडवी से भुज 65 किलोमीटर दूर था और मांडवी में ही सवा 9 बज चुके थे। यह एक अनजान रास्ता था और बाइक में लाइट भी नहीं थी। रास्ते का भी पता नहीं था कि बीच में कोई कस्बा या गांव पड़ेगा या नहीं। अभी इतना सोच ही रहा था कि वहां से एक बस निकली। मैंने सोच को विराम देते हुए उसी बस की बैकलाइट को आधार बनाते हुए राइड शुरू कर दी। 

शुरू में तो बस 70 की स्पीड से चल रही थी तो मैंटेन हो रहा था लेकिन फिर बस ने स्पीड बढ़ानी शुरू कर दी क्योंकि गुजरात की सड़कें और राज्यों की अपेक्षा उस समय बेहतर थीं। बस की स्पीड 80, 90, 100, 110 तक पहुंची और हमें भी उसी स्पीड से अपनी बाइक भगानी पड़ी। क्योंकि यदि ऐसा नहीं करते तो उस अंधेरे में दूसरे वाहन कब निकलते, पता नहीं और रास्ते में रुक भी नहीं सकते थे। एक समय तो ऐसा आया कि 120 की स्पीड से बस को ही ओवरटेक करना पड़ा। उस समय नई बाइक थी और स्पीड पूरी 140 की खुली हुई थी। यह एक खतरनाक कदम था लेकिन रिस्क लिया। इसका असर यह हुआ कि फिर बस 80 की स्पीड से चलने लगी। उसे भी लगा कि बाइक वाला बस के पीछे इसलिए लगा था कि उसकी रोशनी में वह आगे जा सके। 

खैर 50 मिनट में 65 किलोमीटर की दूरी तय कर सवा 10 बजे भुज आ गए। अब यहां रुकने का ठिकाना ढूंढना था। तभी वहां स्वामीनारायण का मंदिर दिखा तो हमने वहां रुकने की जुगाड़ लगाई। 50 रुपये की पर्ची कटी लेकिन रुकने की जगह थोड़ा अलग जगह थी। अब इतनी रात को कर भी क्या सकते थे। 

भुज
मुझे एक ऐसा कमरा मिला जिसमें पहले से ही दो लोग थे। कमरे में पंखा लगा था और मच्छरों की भरमार थी। एक केयरटेकर था जो आराम से खटिया पर सो रहा था। रात में मोबाइल और कैमरा चार्ज करना था इसलिए अब यहां रुकने के अलावा कोई चारा नहीं था। 

रात को 12 बजे किसी तरह सोने की कोशिश की लेकिन मई की गर्मी और वह भी कच्छ के इलाके में, दम निकाल रही थी। किसी तरह डेढ़ घंटे की नींद ली लेकिन बीच में उठ गया। अब गर्मी और मच्छरों की वजह से सोना नहीं हो पा रहा था। मैं फिर से उस केयरटेकर के पास गया और बोला कि भाई कोई कमरा हो तो दे दो, भले ही 500 रुपये ले लेना लेकिन उसने कहा कि सोना है तो सोओ, नहीं तो जाओ। पता नहीं, क्यों मुझे उसकी बात चुभ गई। ऊपर गया और बैग पैक कर लिया। 10 मिनट में बैग पैक किया और नीचे आ गया। 

अब एक अनजान शहर में रात को बाइक से चलना था, वह भी बिना हैडलाइट की बाइक से। दो दिन पहले ही एक्सीडेंट हुआ था जिसमें हाथ और पैरों में चोट थी लेकिन जुनून सब करवा देता है। थोड़ी देर मैं एक दुकान पर बैठा और पोहा खाकर चाय पी। इस रास्ते पर अच्छी बात यह थी कि यह हाइवे था और पूरे रास्ते में स्ट्रीट लाइट लगी थीं इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। 

यहां से रात 2 बजे चलना शुरू किया लेकिन आधा घंटे बाद ही नींद आने लगी। तभी वहां रास्ते में एक चाय की दुकान दिखी। वहां एक खटिया भी बिछी थी। चाय वाले की दुकान पर एक बच्चा बैठा था। उससे बातों ही बातों में पता लगा कि यह वह जगह थी जहां भूकंप के बाद सोनिया गांधी आईं थी। यह एक मुस्लिम बहुल बस्ती थी। चाय पीकर मैं वहीं खटिया पर सो गया। सुबह 4 बजे वहां लोगों का आना-जाना शुरू हुआ तो मुझे भी वहां से चलना पड़ा। फिर थोड़ा आगे बढ़ा, तब तक सुबह हो चुकी थी।

लगातार 24 घंटे में 500 किलोमीटर के सफर के बाद यह हालत हो गई थी।
फिर एक चाय की दुकान पर रुका और चाय पीकर वहीं एक पटिया पर सो गया। गहरी नींद की वजह से कुछ अहसास ही नहीं हो रहा था। फिर सुबह पौने सात बजे उठे और मुंह-हाथ धोकर आगे के सफर पर चल दिए।

इस चाय की दुकान पर पटिया पर सोकर बिताई रात।
यह रोमांचक और खतरनाक सफर 7 और 8 मई 2013 का है जब भोपाल से गुजरात की 3433 किमी की पहली बाइक यात्रा पर अकेले निकला था। 

अगली सच्ची कहानी में रोमांच महसूस होगा भारत की सबसे बड़ी हड़प्पा साइट धौलावीरा और कच्छ के रण का... 

Thursday, September 12, 2019

11 दिन की यात्रा और सातवें दिन पैसे खत्म, बीच रास्ते में पेट्रोल खत्म, ऐसे निकला रास्ता

आज काफी लंबी दूरी तय करनी थी इसलिए सुबह 6 बजे उठ गया। सुबह 7 बजे तक मैं गुजरात के जामनगर से निकलने के लिए तैयार था। रात जामनगर के सर्किट हाउस में गुजरी थी जिसमें हमारे मित्र नाथू रामदा जी ने मदद की थी। 


आज यात्रा का सातवां दिन था। यात्रा के लिए जो 8 हजार का बजट रखा था, वह खत्म हो चुका था। सिर्फ 200 रुपये बचे थे और अभी 5 दिन की यात्रा बाकी थी। मुंबई के एक दोस्त को 3 हजार रुपये उधार दे रखे थे, अब उसी पर उम्मीद टिकी थी। उसी उम्मीद के सहारे आगे चला कि दोपहर तक अकाउंट में पैसे आ जाएंगे। 

अभी जामनगर से निकले हुए डेढ़ घंटे ही हुए थे और 40 किलोमीटर की दूरी ही तय की थी कि वही हुआ, जिसका डर था। लिंबुडा वाटिया से  थोड़ा आगे बीच रास्ते पर पेट्रोल खत्म हो गया और पैसे भी। हम हाइवे पर खड़े सोच रहे थे कि अब क्या करें। दोस्त को फोन लगाया तो उसने टका सा जवाब दिया कि पैसे नहीं हो पा रहे। 

कहते हैं कि जब एक रास्ता बंद होता है तो कई नए दरवाजे खुलते हैं, ऐसा ही कुछ उस दिन हुआ। अचानक से बाइक पर सवार एक लड़का आया और मेरे पास आकर रुक गया। उसने मुझसे पूछा कि क्या समस्या है। मैंने उसे बताया कि पेट्रोल खत्म हो गया है, कहां मिलेगा? उसने जवाब दिया कि 20 किलोमीटर आगे पंप है। मैंने उससे कहा कि भाई कुछ पेट्रोल दे दो तो उसने कहा कि मेरी गाड़ी में भी ज्यादा नहीं है। तब मैंने उससे कहा कि मुझे पेट्रोल पंप तक ले चलो, तुम्हारी गाड़ी में भी आने-जाने का डलवा देंगे। वह तैयार हो गया। 


उसके साथ बैठकर मैं 20 किलोमीटर दूर पेट्रोल पंप पर गया। 50 रुपये का पेट्रोल उसकी गाड़ी में डलवाया और 70 रुपये का मैंने लिया। इसी दौरान मैंने भोपाल में अपने एक परिचित सुरेश गर्ग जी को पैसे के लिए कहा तो उन्होंने 3 हजार रुपये अकाउंट में डलवाने का वादा किया। पंप से वापस आकर अनजान और मददगार लड़के ने मुझे छोड़ा और फिर खेतों के बीच उतरकर न जाने कहां चला गया। वहीं, मेरे परिचित ने भी अपना वादा निभाया और जब मेरे पास रास्ते में एक रुपया भी नहीं बचा था, तब मेरे लिए अगले 5 दिन के सफर खर्च की व्यवस्था की। 


इस तरह गुजरात यात्रा में सफर के सातवें दिन एक बड़ी समस्या से आसानी से छुटकारा मिला। इसके बाद रात 10 बजे तक आमरन, मालिला, सामख्याली, भचाऊ, गांधीधाम, कांडला, मुंद्रा, मांडवी होते हुए भुज तक की 436 किलोमीटर बाइकिंग की, वह भी तब जब दो दिन पहले ही एक्सीडेंट हुआ था। 

यह घटना 7 मई 2013 को 3433 किलोमीटर की 100 सीसी बाइक से गुजरात यात्रा के दौरान घटी जिसने मुझे इंसानियत पर भरोसा करना सिखाया। 

रोमांचक यात्रा का रोचक वृतांत जारी रहेगा...

Shyam Sundar Goyal
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Monday, September 9, 2019

नींद के झोंके से पलट गई बाइक, विल पॉवर की ताकत से हुआ चमत्कार

5-6 मई 2013...बाइक से सोमनाथ से द्वारका तक का सफर, जिसने जिंदगी बदल दी। इस दिन दो घटना हुईं जिनके सबक सभी के लिए हैं। पहली यह कि तमाम सावधानियों के बाद भी दुर्घटना होती हैं और दूसरी आस्था, हर कष्ट की दवा है। 


मैं 1 मई से 11 मई तक भोपाल से गुजरात की 3433 किमी की बाइक यात्रा पर अकेले निकला था। 4 मई तक मैं भोपाल से सोमनाथ पहुंच चुका था। 5 मई को सुबह 11 बजे मैंने सोमनाथ छोड़ दिया और आगे की यात्रा पर चल दिया। भालका तीर्थ, वेरावल होते हुए साढ़े 12 बजे चोरवाड़ में था जहां समंदर किनारे जूनागढ़ महाराज का पैलेस बना था और जहां का पानी सफेद झाग की तरह नजर आ रहा था। इतना मनोरम और सुंदर दृश्य देखकर लग रहा था कि जैसे मैं स्वर्ग में आ गया लेकिन कुछ ही घंटों बाद जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति मेरा इंतजार कर रही थी। 


चोरवाड़ से आगे निकला तो मांगरोल पहुंचा। यहां पर पानी के छोटे जहाज भारी मात्रा में बनाए जाते हैं। मैं भी उन्हीं रास्तों में भटक गया और बड़ी मुश्किल से बाहर आ सका। वहां से थोड़ा आगे निकला तो कांधलीकृपा पर भोजन किया। तब तक दोपहर के सवा दो बज चुके थे। वहां मैंने थोड़ा हल्का खाना खाया क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि दोपहर में नींद आ सकती है। थोड़ा रायता और नमकीन चावल खाकर आगे निकला और 3 बजे माधवपुर पहुंचा। यहां समंदर और सड़क साथ-साथ चल रहे थे। बहुत ही रोमांचक सफर लग रहा था। 

जैसे ही समंदर और सड़क जुदा हुई, वैसे ही कंटीली झाड़ियों की रास्ता शुरू हो गया। तब मुझे नींद के झोंके आने लगे। गरमी तेज पड़ रही थी और बाइक का सफर कष्टकारी साबित हो रहा था। बाइक भी 70 की स्पीड से चल रही थी। तभी मुझे नींद के तेज झोंके आए। मैंने सोचा कि कहीं रुकते हैं, स्थिति खतरनाक होती जा रही है लेकिन 10 किलोमीटर तक वहां एक पेड़ या कोई दुकान तक नजर नहीं आई, जहां बाइक रोक सकूं। छांव के इंतजार में आगे बढ़ता जा रहा था कि तभी कुछ सेकंड के लिए मेरी आंखें बंद हो गईं। जब आंखें खुली तो बाइक सड़क के किनारे रेत में उतर चुकी थी। 


बाइक को सड़क पर लाने का प्रयास किया लेकिन वह स्लिप हो गई और करीब 200 मीटर तक सड़क पर घिसटती चली गई। सिर में हेलमेट था जिसका कांच टूट चुका था। पैर और हाथ बाइक के नीचे दबे थे जिनमें से खून बहने लगा था। किस्मत से मेरी बाइक ऐसी जगह स्लिप हुई जिसके सामने ही दुकान और कुछ घर थे। सभी लोग दौड़कर आए और मुझे उठाया और दुकान तक ले गए। उस समय मुझे अपनी चोट से ज्यादा इस बात का दुख हो रहा था कि बाइक का तो काम तमाम हो गया। अब इसे ट्रेन में रखवाकर भोपाल भिजवानी पड़ेगी और यात्रा के दुखद अंत की टीस चुभती रहेगी। 

जिस जगह एक्सीडेंट हुआ वहां से पोरंबदर और माधवपुर 40-40 किलोमीटर पर थे। यानी एंबुलेंस तक आने में एक घंटा कम से कम लगना था। तब तक खुन निकलने पर गंभीर स्थिति भी हो सकती थी। पैर में फ्रैक्चर भी हो सकता था। ऐसे में विल पॉवर का इस्तेमाल किया और वहां लोगों से पूछा कि बाइक स्टार्ट हो रही है या नहीं। बाइक की किक तो मुड़ चुकी थी और पैर के ब्रेक भी खराब हो चुके थे। ऐसे में सेल्फ स्टार्ट से बाइक चालू तो हो गई लेकिन अब उसे चलाना बड़ा दुष्कर काम था। 20 मिनट में ही निर्णय लिया कि अब हाथ के ब्रेक के सहारे ही बाइक को पोरबंदर लेकर चलते हैं। वहां अस्पताल में इलाज करवाएंगे। 

पैर के घाव में साफी बांधी और हाथ के घाव पर रुमाल। घाव के कारण चप्पल पहन नहीं सकते थे इसलिए नंगे पैर ही बाइक पर मोर्चा संभाला और आगे चल दिए। सवा 4 बजे एक्सीडेंट के घटना स्थल से 40 किमी दूर पोरबंदर के एक सरकारी अस्पताल में पहुंचा। रविवार की वजह से अस्पताल बंद था और इमरजेंसी यूनिट ही खुली थी। किसी तरह बाइक को वहां खड़ी की और लंगड़ाते हुए अस्पताल के अंदर दाखिल हुआ तो वहां का स्टॉफ दौड़ते हुए आया।


मेरी हालत देखकर वह तुरंत मुझे इमरजेंसी यृनिट में ले गए और इलाज शुरू कर दिया। घावों की ड्रेसिंग की गई और एक सीनियर डॉक्टर को बुलवाया गया। उन्होंने हाथ-पैर चेक किए और कहा कि फ्रैक्चर नहीं है लेकिन अंदरूनी चोट ज्यादा है। इंजेक्शन लगाकर दवाई दे दी। उसके बाद बरामदे में बाहर लेटकर आधा घंटे आराम किया। अब सामने दो रास्ते थे वापस भोपाल या फिर इसी चोट में आगे की 6 दिन की यात्रा जो शारीरिक रूप से काफी कष्टदायक होने वाली थी। मैंने कहा कि जब यहां तक आ गए गए हैं तो वापस तो नहीं जाएंगे। आगे चलेंगे। 

बस फिर उठे और पोरबंदर में गांधी के जन्म स्थल पर पहुंचे और वहां घूमने लगे। शाम को 6 बजे फिर हिम्मत की और वहां से 100 किमी दूर द्वारका के लिए प्रस्थान किया जहां साढ़े आठ बजे तक हमने दस्तक दे दी थी। 


असली परीक्षा अब शुरू हुई। तीसरी मंजिल पर लॉज में कमरा मिला। कमरे में सामान पटका और फिर बाहर निकले लेकिन यह क्या, पैर तो उठ ही नहीं पा रहे। गाड़ी पर चलने की वजह से वह चोट के कारण वह भारी हो गए। मैं फिर वहीं के एक सरकारी अस्पताल पहुंचा तो अभी खुला हुआ था। 

वहां एक कंपाउंडर मिला और उसने फिर मेरे घाव की ड्रेसिंग की। उसने कहा कि इस घाव में तुम आगे चल नहीं पाओगे, यह सड़ जाएगा और पैर भी खराब हो सकता है। तभी वह बोला कि ऐसा करना कि द्वारकाधीश मंदिर के पास नदी समंदर में मिलती है। उसमें नहा लेना, घाव भी ठीक हो जाएगा और किसी दवा की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। मैंने कहा कि तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? ऐसे घाव में पानी में उतरने की बात कर रहा है, घाव पक नहीं जाएगा। वह बोला कि ऐसा कुछ नहीं होगा। यहां का पानी ही ऐसा है जिसमें हर तरह का घाव ठीक हो जाता है। 

मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और थोड़ा सा बाजार घूमने के बाद आकर सो गया। सुबह 7 बजे की आरती अटैंड करनी थी। सुबह 6 बजे उठा तो पलंग से उतरने की कोशिश की लेकिन यह क्या, पैर तो कई मन भारी हो चुके थे। किसी तरह नीचे उतरा और बाइक को स्टैंड से उतारा। पैर में घाव था तो नंगे पैर ही बाइक उठाई और किसी तरह द्वारकाधीश मंदिर पहुंचा। नदी में स्नान कर के दर्शन के लिए जाना था। हिम्मत करके सारे घाव से पट्टी निकालकर समंदर और नदी के संगम में उतर गया। घाव पर जैसे ही नमक के पानी का स्पर्श हुआ, दर्द की लहर पूरे शरीर में प्रवेश कर गई। वहां तीन डुबकी लगाईं और बाहर निकला लेकिन यह तो चमत्कार सा था। अब न तो दर्द था और न थकान। जहां पैदल चलने में कष्ट हो रहा था, वहीं अब सीढ़ियां भी बड़े आराम से चढ़ रहा था। 

सुबह की आरती में भीड़ के साथ ही शामिल हुआ। उसके बाद आगे की यात्रा घाव पर बिना पट्टी लगाए और बिना दवाई खाए की। जब 6 दिन बाद भोपाल लौटा तो हाथ और पैर के घाव भर चुके थे। 

Shyam Sundar Goyal
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Monday, August 5, 2019

Friendship With History: एक शाप से उजड़ गया था यह शानदार किला, तुगलकी फरमान का था गवाह

कहा जाता है कि देश की राजधानी दिल्ली 7 बार उजड़ी और बसी। हालांकि बताने वाले तो कहते हैं कि दिल्ली सात बार नहीं बल्कि 16 बार बसी और उजड़ी लेकिन इस बात के अभी तक प्रमाण नहीं हैं। खैर, कोई बात नहीं, हमने इस बार के फ्रेंडशिप डे को कुछ अलग तरह से मनाने की सोची और इस बार दोस्त बनाया अपने इतिहास को।




फेसबुक पर इवेंट पेज पर जानकारी लगी कि रविवार 4 अगस्त को 'सैर-ए-दिल्ली' पेज पर एक इवेंट की जानकारी है जिसमें तुगलकाबाद हेरिटेज वॉक की जानकारी दी गई थी। तुगलकों  के बारे में इतिहास में पढ़ रखा था कि इसी वंश के एक सुल्तान का नाम सनकी सुल्तान के रूप में इतिहास में  दर्ज है। यही एक चीज थी जिसने वहां जाने के लिए मजबूर कर दिया। 

हेरिटेज वॉक का समय सुबह 8 से 11 का था। खैर, सुबह साढ़े पांच उठे और सुबह 6.30 बजे की 34 ए नंबर की बस नोएडा सेक्टर 19 से पकड़ी। बस का 50 रुपये में पास बनवा लिया तो आराम से अब पूरे दिन दिल्ली में कहीं भी घूमने का इंतजाम हो गया। बस से पहुंचना तो 8 बजे तक था लेकिन सुबह खाली रास्तों को कारण सवा 7 बजे हम स्पॉट पर थे। अब वहां 25 रुपये का टिकट लिया और अन्य साथियों का इंतजार करने लगे। ठीक 8 बजे वहां फरीदाबाद, गुड़गांव और दिल्ली से आए करीब 50 साथी थे जो इस हेरिटेज वॉक का हिस्सा बनने वाले थे। 


किले के अंदर पहुंचकर सबका परिचय हुआ। इस किले के बारे में रोचक जानकारी देने के लिए यूसुफ भाई थे जो दिल्ली में बसे सातों शहरों की कई बार हेरिटेज वॉक करा चुके थे। इस किले और 14वीं शताब्दी में बसी तीसरी दिल्ली के बारे में उन्होंने तारीख ए फिरोजशाही और रिहाला किताब से जानकारी जुटाई थी। 

परिचय के बाद यूसुफ ने ट्रैकर्स को दिल्ली में बसे सातों शहरों के बारे में जमीन पर मैप बनाकर जानकारी देना शुरू की। तब पता चला कि हम जिस किले में खड़े थे, वह तीसरी बार बसी दिल्ली थी जिसे तुगलक वंश के ग्यासुद्दीन तुगलक ने 1320 से 1325 ईसवी के बीच बसाया था। इसने ही खिलजी वंश के बाद तुगलक वंश चलाया था। जब हमें कोई फरमान अजीब लगता है तो कहते हैं कि यह तुगलकी फरमान है। यह शब्द इसी तुगलक वंश की ईजाद है जिसे चरम पर ग्यासदुद्दीन तुगलक के बेटे मोहम्मद बिन तुगलक ने पहुंचाया।



आज के हमारे गाइड ने यहीं बताया कि ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, सबसे पहली दिल्ली महरौली-लालकोट, दूसरी सीरी, तीसरी तुगलकाबाद, चौथी, जहांपनाह, पांचवी  फिरोजाबाद, छठवीं दीनपनाह और सातवीं शाहजहानांबाद है। जिसे हम पुरानी दिल्ली कहते हैं वह सबसे नई बसी हुई दिल्ली है। 


किले पर देखने लायक कई जगह थी जो इतिहास को हमारे सामने जीवंत कर रही थीं। एक शानदार बावली थी जिसमें सीढ़ियों से नीचे उतरने का रास्ता था। इस बावली के नीचे जो चट्टान नजर आ रही थी, वह अरावली पर्वतमाला का हिस्सा थी।


इसके बाद थोड़ा सा आगे चले तो एक घुमावदार दरवाजे के सामने सभी रुक गए। इस किले में प्रवेश करने के ऐसे 13 दरवाजे थे। इनका घुमावदार रास्ता इसलिए था कि दुश्मन के आक्रमण के समय सभी सचेत हो जाएं।

इसके आगे भी कुछ जगह थी जहां अन्न का भंडार करके रखा जाता था लेकिन वहां जाने का समय नहीं था। इसके बाद वहां सुल्तान के महल के भी भग्नावेष नजर आए जो एक समय दुनिया का श्रेष्ठ महल था। यह किला साढ़े 6 किलोमीटर में फैला था लेकिन अब 2 किलोमीटर का ही हिस्सा बचा हुआ है। 


किले में ही एक ऐसी जगह थी जो थोड़ा जमीन के नीचे थी और कई कोठरियां बनी थी। गाइड ने बताया कि यह शायद कैदियों को रखने की जगह या मीना बाजार था। इसमें चलना भी एक रोमांच की तरह था। 


किले में दूर तक नजर रखने के लिए चारों दिशाओं में चार वॉच टॉवर भी बनाए गए थे। इसके अलावा यहां एक और गहरी बावली नजर आई जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां नहीं थीं। गाइड ने बताया कि इसे विजय मा जगह कहा जाता है। इसके बारे में कहा जाता है कि मौत की सजा पाए कैदियों को इसमें फेंक दिया जाता था। बावली में बड़े-बड़े मगरमच्छ थे जो नीचे फेंके गए कैदियों को खा जाते थे। 


इस किले से कुछ शाप भी जुड़े थे इसलिए उस समय का दुनिया का यह भव्यतम किला कुछ ही सालों में वीरान हो गया। इसके बारे में भी एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि ग्यासुद्दीन तुगलक ने किले को बनवाने के लिए दिल्ली की सारी जनता को मजदूर के रूप में लगा दिया। प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने उनके फरमान को मानने से इनकार किया तो सुल्तान ने उन्हें सजा देनी चाही। तब औलिया ने शाप दिया कि जिस किले का तुम्हें इतना घमंड है वह वीरान हो जाएगा। यह किला आधा उजड़ा और आधा गूजरों के कब्जे में चला जाएगा। 



निजामुद्दीन औलिया ने एक और शाप ग्यासुद्दीन तुगलक को दिया था। बंगाल विजय से लौटते समय सुल्तान ने अपने बेटे जौना खान को कहा कि मेरे दिल्ली आने से पहले निजामुद्दीन औलिया से कहो कि वह दिल्ली छोड़कर कहीं चले जाएं नहीं तो हम उसे छोड़ेंगे नहीं। तब औलिया साहब ने कहा कि अभी तो दिल्ली दूर है। उनकी बात सच साबित हुई। इलाहाबाद के पास कड़ा नाम की जगह पर जौना खां ने अपने पिता का सम्मान करने के लिए एक बड़ा शामियाना लगाया। जब उस पर हाथी चले तो वह ढह गया जिसमें ग्यासुद्दीन तुगलक की मौत हो गई। उसके बाद दिल्ली के तख्त पर मोहम्मद बिन तुगलक बैठा जिसने 1325 से 1351 ईसवी तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया।



किले के सामने दूसरे हिस्से में ही ग्यासुद्दीन तुगलक, उनकी पत्नी और उनके बेटे मोहम्मद बिन तुगलक की कब्र बनी हुई है। तुगलक वंश के ही फिरोजशाह तुगलक की कब्र हौज खास किले में बनी हुई है। 



यह सब देखने में 11 बजे चुके थे। अब वहां से निकले तो तुगलकाबाद गांव के रास्ते पर पहुंचे। यहीं 20 रुपये की शानदार बिरयानी और 20 रुपये की आलू टिक्की खाकर पेट पूजा की और फिर 34 नंबर की ही बस पकड़कर वापस अपने ठिकाने नोएडा सेक्टर 19 ए में 2 बजे तक लौटकर आए। 


इस तरह 200 रुपये हे्रिटेज वॉक का चार्ज, 25 रुपये का टिकट, 75 रुपये का खाना-पीना, 50 रुपये बस का किराया लगा। इस तरह 350 रुपये में सात में से एक दिल्ली को देखने का अनुभव लिया।  

Shyam Sundar Goyal
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Wednesday, July 17, 2019

Delhi-Rishikesh Bike Trip: वीक एंड पर एडवेंचर, महाभारतकालीन बस्ती के देखे प्रमाण

मोटरसाइकिल से 6 सालों में 23 हजार 500 किलोमीटर की देशभर में अकेले यात्रा करने का संकल्प पूरा करने के बाद अब कुछ छोटी यात्राओं की ओर मन लगाया। इस बार जगह भी बदली थी और संस्थान भी। हर बार मैं भोपाल से यात्रा शुरू करता था लेकिन इस बार यात्रा दिल्ली से शुरू की। यहां रहते हुए 8 महीने हो गए हैं। कार तो अपने साथ भोपाल से ले आया था लेकिन बाइक भोपाल में ही रखी रही। ऐसे में सबसे पहले बाइक की जुगाड़ की।


30 और 31 मई का ऑफिस में वीक ऑफ था। ऐसे में इन्हीं दो दिन में रिषिकेश की 600 किलोमीटर की यात्रा का प्लान बना डाला। मेरे ऑफिस के साथी ददन विश्वकर्मा के पास बजाज एवेंजर बाइक थी। 29 मई की रात 9 बजे मैंने उनसे बाइक मांगी तो उन्होंने सहर्ष हामी भर दी। फिर मैंने रूम में अपने एक साथी निखिल शर्मा से कहा कि मैं दो दिन के लिए बाइक से रिषिकेश जा रहा हूं, कमरे का ख्याल रखना। उसने दो मिनट सोचा और कहा कि मैं भी चलूंगा। वैसे तो मैं अभी तक बाइकिंग पर अकेले ही गया हूं लेकिन इस बार सोचा कि देखते हैं, साथी के साथ जाने का अनुभव क्या होता है। मैंने भी हां कह दी। सुबह 6 बजे निकलना तय हुआ। 

सुबह 6 बजे उठकर तैयार हुए और बाइक के लिए ददन भाई को फोन लगाया लेकिन फोन उठा नहीं। अब यह चिंता होने लगी कि न तो हमने उनका घर देखा है और न कॉन्टेक्ट हो पा रहा है। अब बाइक मिलेगी भी या नहीं। फिर सोचा कि अपनी कार से ही चलें लेकिन कमिटमेंट तो बाइकिंग का था न कि कार का। एटीएम में पैसा निकालने गया तो कार्ड ही ब्लॉक हो चुका था, नया कार्ड एक्टिवेट करने का समय नहीं था। ऐसे में निखिल ने पैसे दिए जो मैंने बाद में लौटाए। 6.30 बजे मोबाइल पर ददन भाई की कॉल आई कि मयूर विहार मेट्रो स्टेशन आ जाओ, वहीं बाइक के साथ मिलते हैं। तब जान में जान आई कि चलो अब तो बाइकिंग का इस साल का शगुन हो ही जाएगा।


सुबह साढ़े सात बजे मयूर विहार मेट्रो स्टेशन से रिषिकेश की यात्रा शुरू की। वैसे तो रिषिकेश का रास्ता गाजियाबाद, मेरठ होते हुए हाइवे से था लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मैंने एक ऐेतिहासिक स्थल को इसमें शामिल किया और थोड़ा रूट बदला। दिल्ली से 48 किलोमीटर दूर बागपत पहुंचे और फिर यहां से 27 किलोमीटर आगे सादिकपुर सिनौली। सुबह के 10 बज चुके थे। वहीं, गांव में पहले सिनौली के बारे में जानकारी ली और खेतों के बीच बने घरों के पास पहुंचे। 

सादिकपुर सिनौली वह जगह है जहां के खेतों में खुदाई के दौरान एक युद्धस्थल निकला था। इसमें युद्ध में इस्तेमाल होने वाले रथ और तलवारों का जखीरा निकला था। कई कंकाल यहां मिले हैं। यहां निकले एक कंकाल के बारे में कहा जाता है कि वह महाभारतकाल की किसी राजकुमारी का कंकाल है। यहां से निकली सारी चीजों को अब लाल किले के संग्रहालय में पहुंचा दिया गया है।

बहरहाल, हमें वहां सिर्फ खेत दिखाई दिए। खुदाई का कहीं नामोनिशान नहीं था। हमें लगा कि हम कहीं गलत तो नहीं आ गए। ऐसे में वहां से गुजर रहे एक शख्स से खुदाई की जगह के बारे में पूछा तो उसने कहा कि सामने के खेत में ही खुदाई हुई थी लेकिन अब गरमी की वजह से खुदाई बंद है। तेज गर्मी से हम भी बेहाल थे तो हमने उनसे पानी मांगा। वह अपने घर ले गया और न सिर्फ पानी बल्कि गरमा गरम शुद्ध दूध की चाय दी और नाश्ता भी कराया। 

वह फिर हमें खुदाई की साइट पर ले गया। वहां अब खेती हो रही थी। इसी खेत में राजकुमारी का कंकाल निकला था। फिर वह हमें दूसरे खेत में ले गया जहां 2008 में खुदाई हुई थी और तलवार और रथ निकले थे। तब वह 10 साल का था और धुंधली-धुंधली यादों के सहारे बताया कि यहां शायद सोने की तलवार भी निकली थी। कई कंकाल भी निकले थे। 

वहां से हम लौटकर आए तो वह खाने की जिद करने लगा लेकिन हमें आगे निकलना भी था। सवा 11 बज चुके थे और अभी हम मंजिल से 200 किलोमीटर दूर थे। यह रास्ता भी कुछ ठीक और कुछ खराब था।


सिनौली से सवा 11 बजे निकलकर सवा 12 बजे 30 किलोमीटर दूर पुसार पहुंचे। वहां थोड़ी देर रुके और फिर 3 बजे 94 किलोमीटर की दूरी तय कर गुरुकुल नरसन पर महादेव ढाबा पर रुके जहां पेट-पूजा की। आराम से खाना खाने और फिर थोड़ा आराम कर फिर बाइक संभाली और 4 बजकर 10 मिनट पर यहां से रवानगी डाली।

अब हाइवे का रास्ता था इसलिए बाइक की स्पीड भी मैंटेन हो रही थी। सवा 5 बजे हम हरिद्वार में थे। अभी तक सुबह से 251 किमी बाइकिंग कर चुके थे। पहले सोचा कि यहां रुककर स्नान करते हैं और गंगा आरती देख आगे रिषिकेश जाते हैं। लेकिन ऐसा न करते हुए हम आगे बढ़ दिए।


अब रिषिकेश के रास्ते में हमें जाम मिलना शुरू हो गया। दो जगह भयानक जाम मिला लेकिन बाइक होने की वजह से आड़ी-टेड़ी लहराते हुए उसे निकाल ले गए और 1 घंटे में 24 किलोमीटर की दूरी तय कर आखिर रिषिकेश के त्रिवेणी घाट पहुंच गए।


अभी यहां आरती होने में आधा घंटा बाकी था। ऐसे में हम बैग वहीं एक आदमी की देखरेख में छोड़ पानी में उतर गए और जमकर ठंडे पानी में नहाकर थकान उतारी।   

आगे की कहानी जारी है....
Shyam Sundar Goyal
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