Sunday, February 3, 2019

दिल्ली को क्यों कहते हैं दगाबाज शहर? महाभारत और पानीपत में छिपा है इसका राज

अक्सर दिल्ली के बारे में कहा जाता है कि यहां के लोगों में भावना नहीं है। कौन अपना है और कौन पराया, इसका भेद कभी किसी को नहीं लग पाता। भारत जैसे विशाल देश में जहां विभिन्नताओं की भरमार है, वहां की राजधानी में रहने वाले लोगों की सोच ऐसी क्यों है? क्या वह ऐसा करना चाहते हैं या इस दिल्ली की जमीन में ही ऐसा कुछ है कि यहां आकर लोग भी ऐसे हो जाते हैं। 



इस बारे में देश भर की यात्रा और विश्वास पाटील की किताब पानीपत पढ़कर ऐसा लगा कि सही मायने में दिल्ली को समझना है, तो इस किताब को पढ़ना पढ़ेगा, महाभारत के बारे में तो सब जानते ही हैं। इन सबको मिलाकर जो निष्कर्ष निकला, उसका निचोड़ है कि दिल्ली की जमीन ही ऐसी है जो अपनो को दगा करने पर मजबूर करती है। कैसे, आइये देखते हैं...

पानीपत किताब में एक प्रसंग आता है कि मराठा सेना, अहमदशाह अब्दाली से युद्ध करने 14 जनवरी 1761 से कई महीने पहले ही पानीपत के मैदान में डटी थी। अब्दाली ने दिल्ली से मराठों की कनेक्टिविटी काट दी थी, इसलिए उन्हें खाने और अन्य सुविधाओं के लिए स्थानीय लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था। दिल्ली के लाल किले पर उस समय मराठों का ध्वज फहराता था, मुगल बादशाह सिर्फ नाम के बादशाह रह गए थे। 

ऐसे में एक दिन मराठों के पेशवा सदाशिवराव भाऊ पानीपत में अपनी रसद के लिए व्यवस्था कर रहे थे तो एक स्थानीय व्यक्ति से उलझ गए। उस व्यक्ति ने भाऊ को ललकारते हुए कहा कि तुम्हें किस चीज का गुमान है। जिस भूमि पर आप खड़े हो, वह दगाबाज जमीन है। इसने अपनों को कभी नहीं बख्शा है, और यह सच साबित हुआ। मराठों को स्थानीय स्तर पर कोई सहायता नहीं मिली। 14 जनवरी 1761 को मकर संक्राति के आधे दिन में ही मराठा साम्राज्य का सूरज सदा के लिए डूब गया। महाराष्ट्र में ऐसा कोई घर नहीं था, जिसका कोई सगा नहीं मरा था। 
यहीं हुआ था पानीपत का मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच 1761 में तीसरा युद्ध 
फिर मुझे लगा कि आखिर क्या है इस जमीन में क्या है जो यहां के साम्राज्य, पलों में बिखर जाते हैं और लोग अपनों से चोट खाते हैं। तब मैं थोड़ा समय के पीछे गया तो समझ में आया कि पानीपत, कुरुक्षेत्र, दिल्ली उस युद्ध भूमि के भाग थे जहां महाभारत का युद्ध् लड़ा गया था। कुरुक्षेत्र की मुख्य भूमि के आसपास 48 कोस यानि 156 किलोमीटर के दायरे में ये युद्ध हुआ था जिसमें दिल्ली भी आती है। दिल्ली की कुरुक्षेत्र से दूरी 155 किलोमीटर है। 18 दिनों में यह श्मशान भूमि बन गई थी। 

इसी वृक्ष के नीचे कृष्ण ने दिया था अर्जुन को गीता का ज्ञान, बोर्ड पर लिखा है कि महाभारत का युद्ध ़156 किलोमीटर तक हुआ था। 
तब भी भारत का कोई भी भाग ऐसा नहीं था, जब किसी घर में मौत नहीं हुई थी। यहां भी हस्तिनापुर के कौरवों के शक्तिशाली साम्राज्य को, पांडवों के हाथों खोना पड़ा था। अपनों ने ही अपनों से दगा का इतिहास यहां पर लिखा था। शायद तब से अब तक यही कहानी चली आ रही है। जो सबसे शक्तिशाली होता है, वही यहां धराशायी होता है। यह आज भी हो रहा है। हर रोज यहां लोग कहते हैं कि हमने उस पर भरोसा किया लेकिन उसने दगा किया। यहां तक कि बाहर से भी जो लोग यहां आते हैं, उनका व्यवहार भी यहीं के जैसा हो जाता है। 

महाभारत के युद्ध के बाद दिल्ली कई सालों तक राजधानी नहीं बनी। भारत का शासन मगध के पाटिलिपुत्र से चलता रहा। हर्षवर्धन के समय कन्नौज भारत की राजधानी रही। उसके बाद परमार और प्रतिहार काल में भी कन्नौज ही सत्ता का केंद्र था। दिल्ली को कई सालों बाद राजधानी का दर्जा दिया पृथ्वीराज चौहान ने। उसने अजमेर और दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। 1192 ईसवी में उसे मोहम्मद गौरी के हाथों बुरी तरह पराजय मिली और दगा किया उनके अपने ही भारतवासी कन्नौज के महाराज जयचंद ने।

उसके बाद दिल्ली में कई सल्तनतें एक झटके में खत्म हुईं और बनी। पानीपत का पहला युद्ध् बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच 1526 में हुआ। एक ही दिन में लोदी वंश का साम्राज्य खत्म हो गया और बाबर को जीत मिली। बाबर को भारत में आमंत्रण राणा सांगा ने दिया था। 

उसके बाद पानीपत का दूसरा युद्ध् 1556 में हुआ। उस समय दिल्ली पर हेमू का शासन था। 13 साल के अकबर ने हेमू को आसानी से हरा दिया। पानीपत का तीसरा युद्ध मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच 1761 में हुआ। इसमें भी सिर्फ एक दिन में इतिहास बदल गया। उसके बाद पानीपत में कोई युद्ध नहीं हुआ और न ही दिल्ली को फिर वैसा वैभव मिला। 

उसके बाद कलकत्ता से अंग्रेजों का शासन शुरू हो गया था। अंग्रेजों ने भी जब दिल्ली को 1911 में राजधानी बनाया तो यहां क्रांतियों का दौर शुरू हुआ। 15 अगस्त 1947 को एक दिन में ही अंग्रेजों का सूर्य अस्त हुआ और भारतीयों को सत्ता मिली। आज भी दिल्ली की वही तासीर है। इंदिरा गांधी का तब तख्ता पलटा, जब वह सबसे ताकतवर थीं। एनडीए की वाजपेयी सरकार केंद्र में तब हारी, जब वह सबसे मजबूत थी और वह भी अपनों की वजह से। यही हाल दिल्ली की सत्ता का रहा जहां एक नई नवेली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का सूर्य ही अस्त कर दिया। अभी और भी बहुत कुछ देखना है दिल्ली को... 

अब हम भी इसी दिल्ली शहर में
तो दिल्ली में रहना है तो दिल्ली की तासीर को समझना होगा। क्योंकि यही दिल्ली है जो पूरे विश्व में लोगों को ख्याति दिलाती है, राजा को रंक और रंक को राजा बनाती है। फर्श से अर्श तक उठाने की ताकत भी दिल्ली में है और शासन का नैसर्गिक गुण तो दिल्ली में है ही। दिल्ली में रहने का मूलमंत्र है कि किसी पर विश्वास न करो, दगा झेलने को तैयार रहो और उसे सफलता की सीढ़ी बनाकर ऊंचाईयों को छुओ...क्योंकि भाई दिल्ली ऐसी ही है...

Shyam Sundar Goyal
Delhi

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