Thursday, September 15, 2016

इस किले में हजारों स्त्रियों ने किया था जौहर, गुजर्रा के सुनसान इलाके में मिला सम्राट अशोक का शिलालेख


                         केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा

PART-3 चंदेरी से आगरा तक का सफर 

भाेपाल. 15 सितंबर।

भोपाल से 30 मई को यात्रा पर निकलने के बाद 30 की रात को ही 231 किमी की दूरी तय कर चंदेरी पहुंचा। यहां सुबह ऐतिहासिक किले का भ्रमण किया। अब आगे...


चंदेरी में सुबह किले पर भ्रमण करने के बाद जागेश्वरी मंदिर पहुंचा तो वहां पता लगा सुबह मंदिर ही नहीं खुला था। थोड़ी देर पर एक सज्जन आए और भाजपा के लोगों को गाली देते हुए मंदिर का ताला खोलने लगे। वह वहीं चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे जिन लोगों की कभी साइकिल खरीदने की औकात नहीं थी, वह सफारी में घूम रहे हैं। बाद में पता लगा कि चंदेरी मे सुबह लाइट नहीं रहती थी, जिस वजह से नल नहीं आते। अब पंडित जी बिना नहाए तो मंदिर खोलेंगे नहीं, इसलिए मंदिर सुबह 5 की जगह 8 बजे खुलता था। 

जागेश्वरी देवी, चंदेरी।
बाद में उनसे चर्चा हुई तो बातचीत करते-करते 9 बज गए। तब मैंने उनसे कहा कि अब तो चंदेरी घूमने का समय खत्म हो गया और मुझे यहां से निकलना पड़ेगा। तब वह बोले कि मेरी वजह से ये हुआ है, कभी चंदेरी आना तो मैं तुम्हें घुमाऊंगा। इस तरह फिर से चंदेरी आने की संभावना बरकरार रख वहां से 9 बजे निकला।
चंदेरी-झांसी रास्ता।
चंदेरी से निकलने के बाद झांसी होते हुए दतिया में गुजर्रा पहुंचना था। गुर्जरा में सम्राट अशोक का लघु शिलालेख है जिसमें उनके नाम के साथ देवानांपियदस्सी के साथ अशोक नाम मिलता है। ऐसा ही अभिलेख दक्षिण भारत में मास्की में हैं। इस वजह से गुजर्रा बहुत खास हो जाता है। 

चंदेरी से झांसी जाने के दो रास्ते थे। एक ललितपुर(उप्र) होकर दूसरा मप्र में ही पिछोर होते हुए। पिछोर वाला रास्ता अच्छा था, इसलिए इसे ही चुना। 
गर्मी में खरबूजा खाकर राहत मिली।
चंदेरी से करीब डेढ़ घंटे बाद पिछोर पहुंचा। रास्ते में एक टीचर को लिफ्ट दी जिन्हें पिछोर छोड़ा। उनसे इस अंचल के बारे में बात की। 

पिछोर के एक टीचर भूरे सिंह जाटव , जिन्हें लिफ़्ट दी। एक सेल्फी तो बनती है।
पिछोर के बाद अागे चला तो पानी की कमी की भयावह हालत मिली। क्या बूढ़े क्या बच्चे सभी भरी गर्मी में एक ट्यूबवेल के सहारे पानी भरने में लगे थे। 
पानी की जद्दोजहद।
इसके बाद कंटीले झाड़ों को इलाका शुरू हो गया। 11 बजे ही तापमान 45 से पार था। इसी गर्मी में करीब 1 घंटे तक बाइक चलाने के बाद झांसी से कुछ पहले दिनारा तक पहुंच गया। 

इस तरह का था पिछोर और झांसी के बीच का रास्ता।
अब आगे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। ऐसे में समोसा-कचोरी की दुकान पर ठिकाना बनाया। वहीं आंखे बंद कर लेट गए। 
बहुत थक गए और नींद भी आने लगी तो आराम, दिनारा।
1 घंटे आराम के बाद थोड़ी हिम्मत आई तो फिर चल दिए। झांसी शहर में अंदर जाने से कोई लाभ नहीं था। वहां का किला पहले ही देख चुका था। इसलिए सीधे हाइवे से ग्वालियर के रास्ते में चला। पौने 2 बजे गुजर्रा जाने के रास्ते पर मुड़ा। यहां मुझे चाय की दुकान से ये तो पता लग गया कि एक रास्ता यहां से गुजर्रा जाता है लेकिन वह रास्ता क्या है, इस बारे में नहीं बताया। 
गुजर्रा जाने का रास्ता, जो सही नहीं था लेकिन मैं इसी रास्ते से गया।
वहीं से एक व्यक्ति को साथ में लिया जो कुछ दूरी तक साथ गया। अब सुनसान रास्ते पर अकेला था। करीब 15 मिनट भटकने के बाद एक किसान के खेत पर पहुंच गया। जब उसने सुना कि भोपाल से बाइक चलाकर आ रहा हूं तो उसने कहा कि पहले खाना खा लो, फिर चले जाना। इतनी आत्मीयता, वह भी एक परदेशी के लिए, सिर्फ भारत के गांवों में ही संभव है जहां आज भी मेहमान को भगवान माना जाता है। बहरहाल, मैं वहां से पानी पीकर आगे चला। 
रास्ते में मिले किसान जिन्होंने खाने के बारे में पूछा, आत्मीयता से भरपूर व्यवहार।
उन्होंने रास्ता बताया तो फिर अंदाज से उस दिशा में चले। 10 मिनट चलने के बाद देखते हैं कि अब नदी रास्ता रोककर खड़ी थी। थोड़ी देर इंतजार किया तो वहां से एक बाइक को नदी में से निकलते देखा तो उसी रास्ते से हमने भी बाइक निकाल ली। 
इस नदी ने रोक दिया था रास्ता, लेकिन फिर यहीं से निकले।
थोड़ी देर बाद ही मैं 2300 साल पहले के सम्राट अशोक कालीन नगर गुजर्रा में था। वहां घरों की बीच में बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी थी। किसी तरह शिलालेख का पता पूछते हुए आगे बढ़ता रहा। 
घरों के बीच बड़ी-बड़ी चट्टानें, गुजर्रा, दतिया।
फिर सुनसान में जाकर वह जगह मिली, जिसके बारे में किताबों में पढ़ा था लेकिन देखा कभी नहीं। आसपास बिल्कुल सन्नाटा। एक कमरे के अंदर वह शिलालेखा था। उसके बारे में बताने वाला वहां कोई नहीं था। शिलालेख पर खुदे हुए अक्षर नजर आ रहे थे, लेकिन उनको पढ़ना अपने बस की बात नहीं थी। 

सम्राट अशोक का लघु-शिलालेख।

लघु शिलालेख।

ब्राह्मी भाषा में लिखा लेख।

यहां आसपास इस तरह पड़े हैं बड़े-बड़े बोल्डर।




थोड़ी देर उसे ऐतिहासिक जगह पर रूकने के बाद फिर आगे चले। वहां से चलने के बाद 3 बजे दतिया नगर में पहुंचा। यहां कभी मैंने ग्वालियर से रोजाना अपडाउन किया करता था, इसलिए दतिया शहर पहले से ही देखा हुआ था। ये जगह पीतांबरा पीठ के लिए फेमस है। 

दतिया।
यहां से आगे बढ़े तो सिंध नदी पार करते हुए पौने 4 बजे डबरा पहुंचा। यहां थोड़ी देर रूकने के बाद फिर यात्रा शुरू की। शाम 5 बजे मैं अपने गृहनगर ग्वालियर में था। ठीक उस साईंस कॉलेज के सामने, जहां मैंने 5 साल पढ़ाई की। बीएससी के साथ पत्रकारिता की पहली एबीसीडी 1995 से 2000 तक मैंने यहीं सीखी थी। उस समय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भारत में एंट्री हो रही थी। यही पत्रकारिता बाद में करियर बना।

साईंस कॉलेज, ग्वालियर।
यहां से जयविलास पैलेस, कटी घाटी होते हुए ग्वालियर किले पर पहुंचा। वैसे तो इस किले से पुराना नाता है। इसकी तलहटी में ही मेरे कई साल गुजरे थे और अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट और शतरंज खेलने आते थे। कई सालों के बाद किले पर गया तो वहां का नजारा भी बदला हुआ था। किले पर महाराजा मानसिंह का महल, सास बहू की छत्री, अस्सी खंबा बावड़ी,  गुरूद्वारा देखने के बाद 6 बजे यहां से निकला। इसी किले की तलहटी में अभी भी मम्मी-पापा रहते हैं लेकिन वहां नहीं गया। इसका कारण था कि बाइक जर्नी देखते ही कहीं डांट न लग जाए। 
ग्वालियर किले की तलहटी में बनी जैन प्रतिमाएं।


ग्वालियर के किले पर सास-बहूू का मंदिर।

ग्वालियर किले पर 80 खंबा वाली बाबड़ी।

ग्वालियर शहर का विंहगम दृश्य। इसी बस्ती में 2002 तक रहा, डीएवी स्कूल में 7 से 12 तक की पढ़ाई की। 

ग्वालियर किला।




रास्ते में जैन प्रतिमाओं को देखते हुए किले से नीचे उतरा। पौने सात बजे मुरैना जिले के बानमौर में था। यही मेरा बर्थ प्लेस है। यहां परिवार के लोगों की सरकारी कंट्रोल, मैरिज गार्डन और बर्तनाें की दुकानें हैं। 
बानमौर, मेरा बर्थप्लेस जो ग्वालियर और मुरैना के बीच में हैं। यहां के खनन माफिया के हाथाें ही आईपीएस की ट्रेक्टर से कुचल कर हत्या हुई थी।  
ताऊ के घर पर जाकर एक कप चाय पी और बिना रूकने के मोह के जल्दी से वहां से निकला कि कहीं बाइक जर्नी की खबर यहां से उड़कर मुरैना न पहुंच जाए। 

आगे चलने पर मौसम खराब हो गया। आंधी-तूफान चलने लगे। अब लगने लगा कि बानमौर ही रूक जाना चाहिए था लेकिन चलते रहे। बीच में नूराबाद के बाद तेज बारिश शुरू हो गई और फिर मजबूरी में रूकना पड़ा। 

रास्ते में आया आंधी-तूफान।
कुछ देर बाद बारिश हल्की हुई तो फिर आगे चला और करीब 8 बजे मुरैना पहुंचा। 

मुरैना, मेरा ननिहाल और ससुराल। यहीं 11 कक्षा की पढ़ाई भी की थी। 
यहां भी रूकने की व्यवस्था थी लेकिन एक खतरा भी था। यहीं ससुराल है और अभी एक दिन पहले ही पत्नी को यहां भेजा है। यदि उन्हें पता लग जाता कि बाइक लेकर यहां घूम रहा हूं तो फिर हो गई केदारनाथ यात्रा। इसलिए यहां से आगे बढ़ गया। 

रात को पौने 9 बजे धौलपुर पहुंचा। अब आगे चलने की हिम्मत नहीं बची थी। वहीं एक ढाबे पर खाना खाया और आराम करने लगा। पौने 10 बजे ढाबे वाले ने कह दिया कि अब बंद करने का समय हो गया। अब फिर यहां से 65 किमी की दूरी तय कर आगरा पहुंचना था। यहां मेरा दोस्त अजय रावत हिंदुस्तान अखबार में काम करता है। उसी के रूम पर मुझे रूकना था। 

किसी तरह हिम्मत करके गाड़ी चलाते हुए आगरा पहुंचा। शहर पार करने के बाद भगवान टॉकिज के पास उसका आॅफिस था। रात को 11 बजे वहुां पहुंचा। वहां से अजय को साथ लेकर कमरे पर गया और रात 12 बजे छत पर जाकर सो गया क्योंकि नीचे लाइट ही नहीं थी। 

आगे की यात्रा अगले अंक में ...






No comments:

Post a Comment