Thursday, December 29, 2016

Solo #Biking: हल्दीघाटी में जाना महाराणा प्रताप का इतिहास, श्रीनाथजी और उदयपुर में आए कई ट्विस्ट

                      केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा


                                         PART-18 हल्दीघाटी से उदयपुर तक का सफर


29 दिसंबर, भोपाल। भोपाल से 30 मई 2016 को यात्रा पर निकलने के बाद 30 की रात को ही 231 किमी की दूरी तय कर चंदेरी पहुंचा। उसके बाद दूसरे दिन 31 मई को 371 किमी की दूरी तय कर आगरा पहुंचा। 1 जून को आगरा से हस्तिनापुर 319 किमी की दूरी तय कर पहुंचा। 2 जून को 305 किमी की यात्रा कर हस्तिनापुर से रुद्रप्रयाग पहुंचा। 

3 जून को रुद्रप्रयाग से चला और 77 किमी दूर गौरीकुंड पहुंचा। यहां से केदारनाथ मंदिर की 16 किमी की चढ़ाई शुरू की। 3 जून की शाम केदारनाथ धाम पहुंच गया। 4 जून को वापस केदारनाथ से चला। 16 किमी की पैदल यात्रा के बाद 198 किमी बाइक चलाकर उत्तराखंड के शिवपुरी में आया। यहीं नदी के बीचों-बीच कैंप में ठहरा। 5 जून को शिवपुरी में रिवर राफ्टिंग करने के बाद नीलकंठ महादेव, ऋषिकेश, हरिद्वार होते हुए 198 किमी बाइक चलाकर देहरादून पहुंचा। 6 जून को देहरादून से चला। दोपहर में पावंटा साहिब पहुंचा। फिर वहां से चंडीगढ़ होते हुए कुरुक्षेत्र तक का सफर किया। इस दिन कुल 364 किमी बाइक चलाई। 7 जून को कुरुक्षेत्र देखते हुए पानीपत पहुंचा। यहां पानीपत के युद्धस्थलों को देखने के बाद आगे बढ़ा। पानीपत के बाद जींद, राखीगढ़ी, हांसी होते हुए भिवानी पहुंचा। इस तरह इस दिन 283 किमी की दूरी तय की। 8 जून को भिवानी के पास हड़प्पा सभ्यता का स्थल मीतात्थल देखा। मीतात्थल के बाद भिवानी वापस आया। फिर लोहारु, झुंझनू, खंडेला, खाटूश्यामजी, जयपुर, किशनगढ़ होता हुआ अजमेर पहुंचा। सफर के 10 वें दिन सुबह 7 बजे से रात 12 बजे तक 506 किमी बाइकिंग की। 9 जून को 11 वें दिन सुबह 6 बजे अजमेर से पुष्कर के लिए निकला। फिर पुष्कर से अजमेर, मेवा का मथार, कुंभलगढ़ फोर्ट होते हुए हल्दी घाटी पहुंचा। अब आगे..

हल्दी जैसी मिट्टी के कारण इस घाटी का नाम पड़ा हल्दीघाटी। यहां महाराणा प्रताप और अकबर के प्रतिनिधि राजा मानसिंह के बीच हुआ था।  

3850 किमी का इस तरह किया 12 दिन में बाइक से अकेले सफर। वह भी 100 सीसी की TVS Sports बाइक से ।
महाराणा प्रताप संग्रहालय हल्दीघाटी के मैदान से 8 किमी पहले बना हुआ। ये निजी संग्रहालय  है जहां महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी युद्ध से संबंधित चीजों को संभाल कर रखा गया है। इसका शुल्क 50 रुपए है। यहां पर एक छोटी फिल्म भी पर्दे पर दिखाई जाती है जिसमें हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में जानकारी दी जाती है। साथ ही मॉडल के द्वारा महाराणा प्रताप से जुड़ी घटनाओं को बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है। 












संग्रहालय देखने के बाद 5.35 पर  आगे बढ़े तो बलीचा में इतिहास प्रसिद्ध चेतक घोड़े की समाधि बनी हुई है। चेतक हाथी की तरह सूंढ़ लगाकर युद्ध लड़ता था। राणा प्रताप और अकबर के बीच का ये युद्ध 18 जून 1576 में लड़ा गया था। 




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चेतक की समाधि से आगे बढ़े तो शाम 5.55 पर सामने आया हल्दी घाटी दर्रा। जब इस दर्रे में घुसते हैं तो दोनों तरफ मिट्टी के पहाड़ बने हैं। इनकी मिट्टी खोदकर देखते हैं ताे ये हल्दी के रंग की नजर आती हैं, इसलिए इसे हल्दीघाटी कहते हैं। 






ऐसा था हल्दीघाटी का युद्ध

'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये, किंतु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की। युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी।

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हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ राणा प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया। तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी की सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत की छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।

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इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था। सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उन्हीं को निशाना बनाकर वार कर रहे थे।उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।




नाथद्वारा
यहां से आगे नाथद्वारा के लिए चला। शाम को साढ़े 6 बजे नाथद्वारा पहुंच गया। यहां श्रीनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर है। 

श्रीनाथजी के बारे में मैंने सुन रखा था लेकिन वहां जाने का सौभाग्य कभी मिला नहीं था। यहां एक रोचक घटना घटी। 

श्रीनाथजी मंदिर में दर्शन के लिए मैं लाइन में लगा। वहां कोई वीआईपी दर्शन नहीं होते, इसलिए सभी को भीड़ की शक्ल में दर्शन करने होते हैं। अमूनन 6 बजे मंदिर के पट बंद हो जाते हैं लेकिन उस दिन कुछ विशेष था, इसलिए मंदिर खुला था। आधे घंटे तक भीड़ का हिस्सा बनने के बाद मंदिर के अंदर जो दृश्य देखा तो वाकई में अद्भुत था। मंदिर में 6 फीट तक दरवाजा बंद कर उसमें पानी भरा गया था। पानी के अंदर नौका पर श्रीकृष्ण की प्रतिमा को नौका विहार कराया जा रहा था। मैंने भी दर्शन किए और फिर वहां से बाहर निकला। लेकिन मन में एक संशय था। क्योंकि मैंने श्रीनाथजी की जो फोटो पहले देखी थी उसका रूप कुछ और था और यहां कुछ और। खैर में बाहर निकला। फिर जाने कहां से मन हुआ तो एक छोटी से तस्वीर लेने के लिए एक दुकान में घुसा। वहां तस्वीर लेने के बाद जब मैंने दुकानदार से कहा कि इसमें तो कुछ और तस्वीर है और अंदर कुछ और। तब उसने कहा कि अभी आपने श्रीनाथजी के दर्शन करें कहां है, वह प्रतिमा तो अभी पानी में डूबी हुई है। करीब आधे घंटे बाद वह सारा पानी बहा दिया जाएगा और फिर उस प्रतिमा के दर्शन होंगे। हो सके तो उस पानी में नहा लेना।

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मैरे सामने फिर संकट खड़ा हो गया। बड़ी मुश्किल से तो एक बार दर्शन किए थे अब दूसरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। लेकिन फिर हिम्मत की और फिर लाइन में लगा। अब कुछ ज्यादा भीड़ हो गई थी। कुछ देर बाद पानी बहा दिया गया। मैंने देखा कि क्या आदमी और क्या औरत और बच्चे। सभी उस मैदान में भरे पानी में नहाने लगे और उस पानी को पी रहे थे। मैं मंदिर के अंदर गया तो फिर उस भव्य और जीवंत प्रतिमा के दर्शन हुए जिसे श्रीनाथजी के नाम से जाना जाता है। उसके बाद फिर मैं भी उसी पानी में नहा लिया, ये जानते हुए भी मेरे पास कपड़े अब बचे नहीं है। 

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इस सारी कवायद में रात के 8 बज गए। अब यहां से उदयपुर के लिए प्रस्थान किया। उदयपुर रात को 9 बजे पहुंचा। रास्ते में एक टनल भी मिली जो रात को रोशनी से जगमगा रही थी।





अब यहां रुकने की व्यवस्था करना था। यहां जगह ढूंढते-ढूंढते पौने 10 बज गए। तभी देखा कि गाड़ी भी पंचर हो गई। अब पहले पंचर की दुकान ढूंढी। उसके पास ट्यूब नहीं था लेकिन उसने रुकने की जगह बता दी। मैं गाड़ी खड़ी कर उसकी बताई हुए होटल में गया। वहां 500 रुपए में एक अच्छा कमरा मिल गया। कमरा बुक कर कपड़े बदले और फिर बाइक की पंचर दूसरी जगह जुड़वाई। 





बाइक सही करवाकर फिर उदयपुर शहर घूमना शुरु किया। भूख लग रही थी तो वहीं पास के एक हाकर्स कार्नर पर पहुंचा। यहां खाने-पीने और बैठने की अच्छी व्यवस्था थी। बाहर हर जगर कूलर लगे थे जो गर्मी में राहत दे रहे थे। एक डोसा खाने के बाद फिर गाड़ी उठाई और फतेहसागर लेक पर पहुंचा। यहां रात को 11.20 पर पहुंचा। थोड़ी देर यहां आराम करने के बाद रात 12 बजे यहां से चला। 





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जब वहां से होटल लौट रहा था तो रास्ते में ही दैनिक भास्कर का ऑफिस मिल गया। मैंने सोचा कि चलो यहां मिलकर चलते हैं। वहीं मेरी अजमेर के संपादक जी से मुलाकात हुई। उन्होंने जब इस यात्रा के बारे में सुना तो उन्हें अच्छा लगा। फिर उन्होंने वहीं से कोटा में रेजिडेंट एडीटर विजय सिंह चौहान से बात कराई। विजय सिंह जी ने ही 2010 में डीबी स्टार में काम करने का अवसर दिया था जब वे भोपाल में डीबी स्टार के एडीटर थे। उन्होंने कहा कि वापसी में कोटा होते हुए मिलकर जाना। हालांकि कोटा होकर वापस जाने में दूरी ज्यादा और समय भी ज्यादा लगना था लेकिन मैंने उनसे कहा कि मैं कोटा होकर ही भोपाल वापस जाउंगा। 


आगे की यात्रा का विवरण अगले लेख में....



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-PART-10 शिवपुरी (उत्तराखंड) से देहरादून का सफर: जंगल कैंप और रिवर राफ्टिंग का रोमांचक अहसास, भगवान शिव ने पिया था यहीं विष का प्याला









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