Wednesday, September 14, 2016

चंदेरी के किले को देखा रोचक इतिहास, एक मंदिर में मिले अनोखे शख्स

                               केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा

PART-2 चंदेरी के किले का देखा इतिहास

भोपाल 14 सितंबर।

31 मई 2016 को सुबह 5 बजे उठ गया। आज का लक्ष्य जल्दी से चंदेरी घूमकर मथुरा या दिल्ली तक पहुंचने का था जो चंदेरी से 571 किमी था लेकिन पहुंच पाया आगरा तक जो चंदेरी से 371 किमी की दूरी पर था। 

सुबह सवा 6 बजे चंदेरी के एेतिहासिक किले पर पहुंचा। प्रसिद्ध संगीतकार बैजू बावरा की कब्र, कटा पहाड़ और राजपूत स्त्रियों के द्वारा किया गया सामूहिक आत्मदाह (जौहर) यहां के मुख्य आकर्षण हैं।

चंदेरी शहर।
जौहर कुंड पर एक शख्स योग करते मिल गए। उन्होंने जौहरकुंड के बारे में जानकारी दी जो वीडियो में रिकार्ड की। जिस जौहर कुंड में 1528 ईसवी में 1500 महिलाओं ने जलती चिता में छलांग लगाई, वहां अब बच्चे आकर क्रिकेट खेलते हैं। 
जौहर की याद दिलाती छत्री।
इसी मैदान में हुआ था जौहर।
ये है चंदेरी में जौहर का इतिहास
चंदेरी में प्रतिहारों के राज्यकाल के समय सर्वप्रथम 13 वीं शताब्दी में दिल्ली के शासक नासिरुद्दीन महमूद ने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की साथ ही गयासुद्दीन बलबन ने भी चंदेरी पर हमला किया परंतु यह युद्ध सफल न हुआ। दूसरा युद्ध 15 वीं 16 वीं शताब्दी के मध्य हुआ। बाबर ने 28 जनवरी 1528 ईस्वीं को चंदेरी पर आक्रमण किया, आक्रमण उत्तर की ओर से हुआ। जिस समय चंदेरी पर आक्रमण हुआ उस समय चंदेरी का शासक राजा मेदिनीराय प्रतिहार था। मेदिनीराय प्रतिहार राणा सांगा के अभिन्न मित्र थे, सन् 1526 ईस्वीं में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से 5000 सैनिकों के साथ बाबर का सामना करने के लिए पहुंचे किंतु बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया। फिर राणा सांगा के साथ खानवा के मैदान में जाकर डटकर मुकाबला किया। खानवा का युद्ध भारतीय इतिहास का निर्णायकयुद्ध था । इस युद्ध को बाबर ने सैन्यशक्ति के बल पर नहीं बल्कि अपने आत्मविश्वास और तोपखानो की वजह से जीता था। राणा सांगा की पराजय के पश्चात भी मेदिनीराय प्रतिहार शक्तिशाली राजपूत नरेश बाबर का प्रतिदंद्वी था।

बाबर के आंगे घुटने टेकने से इंकार
खानवा के युद्ध में पराजित होने पर क्षत्रिय राजपूतों ने चंदेरी को अपना शक्ति केंद्र बनाया। देश भर के समस्त राजपूतों ने इस युद्ध मे किसी न किसी रुप में सहयोग दिया था। चंदेरी का युद्ध मुगलिया सल्तनत को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए क्षत्रिय राजपूतों की ओर से अंतिम प्रयास था। स्वयं राणा सांगा इस युद्ध में शामिल होने आ रहे थे परंतु अचानक कालपी के निकट उनकी मृत्यु हो गई। प्रतिहार राजपूतों की शक्ति को बहुत बडा आघात पहुंचा। उधर बाबर को भी युद्ध करने की लालसा न थी। वह खानवा के युद्ध में क्षत्रिय राजपूतवीरों का अदम्य साहस और शौर्य को निकट से देख चुका था। इसीलिए बाबर ने युद्ध टालने का प्रयत्न किया, लेकिन मेदिनीराय के देश प्रेम व राणा सांगा की मित्रता तथा क्षत्रियों द्वारा कभी किसी की अधीनता स्वीकार न करने के सिद्धांत के कारण उन्होंने शहीद होना श्रेयस्कर समझा। बाबर के आंगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया। इससे युद्ध होना आवश्यक हो गया था। मुगल सेना ने कीर्ती दुर्ग किला को चारो ओर से घेर लिया अगले दिन प्रतिहार राजपूतों ने कीर्ती दुर्ग और अपनी आन - बान - सान चंदेरी की रक्षार्थ अंतिम समय तक युद्ध किया परंतु तोपखानो की अग्निवर्षा के परिणाम स्वरूप शीघ्रता से धराशायी होते गये। सहस्त्रों प्रतिहार क्षत्रिय वीरों ने किले के बाहर प्रमुख द्वार पर रक्षात्मक युद्ध करते हुए वीरगतिको प्राप्त हुए। यह दरवाजा आज भी 'खूनी दरवाजा' के नाम से प्रसिद्ध है।

मां ने अपने बेटों तो बहिनों ने किया था भाईयों का कत्ल
प्रतिहार सेना की मुगलो से हो रही पराजय से ही लग रहा था कि वीर अब युद्ध को पक्ष में करने में सक्षम नहीं है। और हार अवश्यंभावी है। जब प्रतिहार राजा मेदिनीराय व उनके वीरसैनिक जिस समय हताश होकर बाबर की फौज से अपना अंतिम युद्ध करने को निकले, उस समय जौहर ताल के किनारे वि. सं. 1584 माघ सुदी बुधवार को राजा मेदिनीराय की पत्नी रानी मणिमाला एवं प्रतिहार राजपूत वीरांगनाएँ और नागरिक महिलाओं ने राजपूतों की पराजय निश्चित मानकर अपने कौमार्य, धर्म एवं सतीत्व की रक्षार्थ जौहर रचा और स्वयं को अग्निकुंड मे जय मां चामुण्डा देवी (प्रतिहार वंश की कुलदेवी) के नारे लगाते हुए अपने को समर्पित कर दिया। " उनकी ही स्मृति में यह स्मारक (जौहर) ग्वालियर राज्यके समय में श्री सदाशिव राय सिंह पंवार के द्वारा सन् 1932 में बनवाया गया। कहा जाता है कि जौहर के पूर्व माताओं ने अपने पुत्रों एवं बहनों ने अपने भाइओं का तलवारों से वध कर दिया। इसका उद्देश्य यह था कि कहीं राजपूत मां के प्यारे लाल एवं बहिनों के भाई मुसलमान न बना दिये जायें। विजयोन्मत बाबर ने सेना सहित जब कीर्ती दुर्ग में प्रवेश किया था तो दुर्ग के अंदर खंडित मंदिर, भग्र महल और चिता की राख ही उसे प्राप्त हो सकी थी। 

थोड़ा आगे चला तो किले पर एक गाइड और केयर टेकर मिल गए। उनसे बात की तो वह किला घुमाने को राजी हो गए। उन्होंने खूनी दरवाजा का इतिहास, कटी घाटी के बारे में बताया और चंदेरी शहर के तीन तरफ फैले महल और बावड़ियों के बारे में किले से ही बताया। 

चंदेरी के दर्शनीय स्थल।
चंदेरी के दर्शनीय स्थलों का बोर्ड।
किले में मौजूद केयरटेकर और गाइड, जिन्होंने निशुल्क किले के बारे में जानकारी दी।

खूनी दरवाजा।
महल का वह हिस्सा जो खुला हुआ है। यहां हवा के ताजा झोंकों का अहसास होता है।

चंदेरी किले पर सतखंडा महल।
सतखंडा महल।
किले पर करीब 1 घंटा रहने के बाद नीचे आया। नीचे आते समय सड़क किनारे एक शिव मंदिर दिखा। आत्मा ने कहा रूककर देख लिया जाया लेकिन मन बाइक के साथ शरीर को आगे ले गया। किले से 2 किमी नीचे उतरने के बाद मां जागेश्वरी देवी का मंदिर पड़ा। यहीं पर महाभारत कालीन शिशुपाल ने विशाल यज्ञ किया था। किस्मत की बाद देखिए कि मंदिर के प्रांगण में जाने के बाद मुझे मुख्य मंदिर नहीं दिखा। मैं उसकी तलाश में चलता रहा और ऊपर चढ़ता रहा। 10 मिनिट बाद देखता हूं कि मैं फिर से किले पर था, ठीक उस शिवमंदिर के सामने जिसे छोड़कर में आगे निकल गया था। 

जागेश्वरी मंदिर से बाहर का दृश्य

जागेश्वरी मंदिर का इतिहास बताता बोर्ड।

सुबह साढ़े 7 बजे थी मंदिर का पट। मंदिर में कोई भी नजर नहीं आ रहा था सिर्फ 1-2 भक्तों को छोड़कर, बाद में इसका कारण समझ में आया।

माता जागेश्वरी मंदिर के पुजारी। इनका कहना था कि इस मंदिर परिसर में उनके कई जन्म पहले भी हो चुके हैं। 

चंदेरी।

आगे की जर्नी अगले ब्लॉग में...




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