Sunday, September 22, 2019

सैकड़ों लाशों से भर गई थी खूनी झील, आज भी नजर आता है सिर कटा सवार !

दिल्ली...कई सल्तनतों और बादशाहत की गवाह रही है दिल्ली। इसी दिल्ली के इतिहास को समझने के लिए 15 सितंबर रविवार को शामिल हुए 'सैर-ए-दिल्ली' https://www.facebook.com/SaireDilli/ के Northern Ridge ट्रेक में। इसमें आज सवा दो हजार सालों के इतिहास का साक्षी बनना था। इस ट्रेक में शामिल थे फ्लैगस्टॉफ टॉवर, गार्ड हाउस, खूनी झील, चौबुर्जी मस्जिद, पीर गायब, अशोक स्तंभ और म्यूटिनी मेमोरियल। ये ट्रेक सुबह 9 बजे शुरू हुआ और 12 बजे खत्म हुआ जिसमें 5 किलोमीटर की पैदल हेरिटेज वॉक हुई। 
Sair E Dilli केे साथ हेरिटेज वॉक
शनिवार रात को एक मित्र के साथ पहाड़गंज में रुकना हुआ था। रविवार सुबह नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे जहां सभी ट्रेकर्स को मिलना था। ठीक 9 बजे सभी नॉर्दन रिज के उस ट्रेक पर चल दिए जहां सम्राट अशोक के काल से लेकर अंग्रेजों के काल तक का कालजयी इतिहास सामने आने वाला था। 

विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से निकलकर हम कमला नेहरू या नॉर्दन रिज https://en.wikipedia.org/wiki/Delhi_Ridge  की तरफ बढ़े। यहां सबसे पहले हमें दिखा फ्लैगस्टॉफ टॉवर, जो इस रिज का सबसे ऊंचा स्थान था। यहां अंग्रेजों ने एक टॉवर बनवाया था जहां से लाल किले की तरफ निशाना लगाते हुए तोपें लगी रहती थीं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने 11 मई 1857 को इसी फ्लैगस्टॉफ टॉवर को पहला निशाना बनाया था जहां कई अंग्रेज अपनी जान बचाने के लिए इसमें छिप गए थे। उस समय यह दिल्ली में अंग्रेजों की आर्मी का केंद्र था और इसके पास ही सिविल लाइन में अंग्रेजों की बस्ती बसी हुई थी। 

 फ्लैगस्टॉफ टॉवर
यहां का इतिहास समझ हम आगे बढ़े तो बंदरों ने हमारा रास्ता रोक लिया। इसके बाद थोड़ा आगे बढ़े तो गार्ड हाउस मिला। यह गार्ड हाउस उस समय दिल्ली के चारों तरफ निगाह रखने के लिए बनाए गए थे। यह गोथिक शैली में बना एक शानदार स्ट्रक्चर था जो अभी भी दो सौ सालों के इतिहास को अपने में समेटे नजर आ रहा था।

गार्ड हाउस
यहां से आगे बढ़े तो मुख्य सड़क से अलग हटकर जंगल की पगडंडियों में उतर गए। चलते-चलते एक झील सी दिखाई दी जिसके चारों तरफ जाली लगी थी। मुझे महसूस हो रहा था कि यह कोई साधारण झील नहीं है। मेरा अंदाजा सही निकला और जब उसका इतिहास हमारे गाइड ने बताया तो सबके होश उड़ गए। 

खूनी झील
इसका नाम खूनी झील था। कहा जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय इस झील में विद्रोहियों की सैकड़ों लाशों को इसमें पटक दिया गया था। कहा जाता है कि इतनी लाशों के खून से इसका रंग लाल हो गया था। इसके बाद यह एक हांटेड जगह बन गई और यहां सुसाइड के केस होने लगे। यहां रात में एक सफेद फ्रॉक पहने लड़की अक्सर लोगों को दिखती है तो एक सिर कटा सवार भी लोगों को आतंकित करता है। यह जगह परालौकिक घटनाओं के एक्सपेरिमेंट की भी जगह बनी हुई है। 


इसके बाद आगे बढ़े तो रास्ते में मिली चौबुर्जी मस्जिद, जिसे फिरोजशाह तुगलक https://en.wikipedia.org/wiki/Firuz_Shah_Tughlaq ने 14वीं सदी में बनवाया था। फिरोजशाह की यह शिकारगाह थी और इसमें ही उसने मस्जिद बनवाई थी जिसमें चार बुर्ज थीं। 1857 में इस मस्जिद की तीन बुर्ज अंग्रेजों ने तोपों से उड़ा दी। अब सिर्फ एक बुर्ज ही यहां बची है। 


चौबुर्जी के बाद कमला नेहरू रिज के पार्ट से निकलकर अब दाखिल होते हैं कभी सिर्फ अंग्रेजों की बस्ती रही सिविल लाइन में। 


यहां के हिंदू राव कैंपस में पीर गायब के नाम से दो मंजिला स्ट्रक्चर खड़ा है जो अब ध्वस्त हालत में है। इसे भी फिरोजशाह तुगलक ने बनवाया था। माना जाता कि यह जगह फिरोजशाह तुगलक की शिकारगाह के साथ वेधशाला भी थी। इसके कुछ प्रमाण इसकी दूसरी मंजिल पर दिखाई देते हैं। यहां एक पीर भी बसते थे जिनकी यह जगह चिल्लागाह बनी। बाद में एक रात वह अचानक से गायब हो गए तो इसका नाम पड़ गया पीर गायब। 


पीर गायब से आगे चले तो दिखा तो मेरठ-दिल्ली के नाम से फेमस अशोक स्तम्भ https://en.wikipedia.org/wiki/Pillars_of_Ashoka। वैसे तो भारत में ईसा पूर्व तीसरी सदी के महान सम्राट अशोक के 11 अशोक स्तम्भ हैं जिनमें से 10 में लेख खुदे हुए हैं। उनमें से एक यह भी है। यह स्तंभ मूल रूप से मेरठ में स्थापित था लेकिन फिरोजशाह तुगलक के काल में इसे मेरठ से दिल्ली लाया गया था। 

अशोका पिलर
इसके बारे में एक रोचक कहानी है। मूल रूप से यह काफी बड़ा था और जब इसे मेरठ से दिल्ली लाया गया तो यमुना पार कराने के लिए एक स्पेशल नाव बनाई गई। इसे मखमल में लपेटकर लाया गया था जिससे कि इसकी चमक पर कोई फर्क नहीं पड़े। जब शाम के समय इस पर सूरज की रोशनी पड़ती थी तो यह सोने की तरह चमकता था। फिरोजशाह तुगलक इसे देखकर हैरान था। उसने कई विद्वानों से इसके बारे में पूछा तो किसी ने इसे भीम की लाट बताया तो किसी ने कुछ और। कोई भी विद्वान इस पर लिखे लेख को उस समय नहीं पड़ पाया था। फिरोजशाह तुगलक को अपने जीवनकाल में कभी यह पता नहीं लग पाया कि जिस स्तम्भ को वह अपने पूर्वजों का समझ रहा है, वह दरअसल 1700 साल पहले बनाया गया सम्राट अशोक का स्तम्भ है।
दिल्ली-मेरठ अशोका पिलर
1857 के गदर के समय इसे भी तोप से उड़ा दिया गया था। बाद में इसके पांच टुकड़ों को जोड़कर फिर से इसे यहां लगाया गया। 

इसके बाद पहुंचे हम अपने ट्रेक के अंतिम स्थल सैन्यद्रोह स्मारक या म्यूटिनी मेमारियल या फतेहगढ़ https://en.wikipedia.org/wiki/Mutiny_Memorial। इस मेमोरियल को अंग्रेजों ने 1863 में बनवाया था। 1857 के गदर में लड़ाई में मारे गए अपने सैनिक और अफसरों की याद में यह बनवाया गया था। 

म्यूटिनी मेमोरियल
यह गोथिक शैली के आर्किटेक्चर का बेहतरीन नमूना है। 30 मई से 20 सितंबर 1857 के बीच मारे गए अंग्रेजों की सेना में अंग्रेज और स्थानीय अफसर और सैनिकों की याद में यह बना है। 


यहां इस दौरान अंग्रेजी सेना के 186 ब्रिटिश और 63 भारतीय अफसर, 1982 ब्रिटिश और 1623 भारतीय गैर अफसर और सैनिक या तो मारे गए, या मिसिंग हो गए या अपहरण कर लिए गए थे। 

म्यूटिनी मेमोरियल
इस तरह 3 घंटे में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर ईसा की 19वीं शताब्दी के इतिहास को अपनी आंखों के सामने से गुजरते और महसूस करते देखा। 


इस ट्रिप में 200 रुपये ट्रेक आर्गेनाइजर को दिए, 20 रुपये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन तक, 15 रुपये का पूड़ी का नाश्ता, 20 रुपये की पानी की बॉटल और 20 रुपये में ई-रिक्शा से पहाड़गंज वापसी। इस तरह 275 रुपये में दिल्ली जैसे मंहगे शहर में अपना ट्रेक हो गया। 

Shyam Sundar Goyal
Delhi

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