Wednesday, December 21, 2016

Solo #Biking: रहट से ऐसे पानी निकलते देख ठहर गए कदम, यहां मिली चीन के बाद दूसरी सबसे बड़ी दीवार

                          केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा


                                         PART-17 अजमेर से उदयपुर तक का सफर


21 दिसंबर, भोपाल। भोपाल से 30 मई 2016 को यात्रा पर निकलने के बाद 30 की रात को ही 231 किमी की दूरी तय कर चंदेरी पहुंचा। उसके बाद दूसरे दिन 31 मई को 371 किमी की दूरी तय कर आगरा पहुंचा। 1 जून को आगरा से हस्तिनापुर 319 किमी की दूरी तय कर पहुंचा। 2 जून को 305 किमी की यात्रा कर हस्तिनापुर से रुद्रप्रयाग पहुंचा। 

3 जून को रुद्रप्रयाग से चला और 77 किमी दूर गौरीकुंड पहुंचा। यहां से केदारनाथ मंदिर की 16 किमी की चढ़ाई शुरू की। 3 जून की शाम केदारनाथ धाम पहुंच गया। 4 जून को वापस केदारनाथ से चला। 16 किमी की पैदल यात्रा के बाद 198 किमी बाइक चलाकर उत्तराखंड के शिवपुरी में आया। यहीं नदी के बीचों-बीच कैंप में ठहरा। 5 जून को शिवपुरी में रिवर राफ्टिंग करने के बाद नीलकंठ महादेव, ऋषिकेश, हरिद्वार होते हुए 198 किमी बाइक चलाकर देहरादून पहुंचा। 6 जून को देहरादून से चला। दोपहर में पावंटा साहिब पहुंचा। फिर वहां से चंडीगढ़ होते हुए कुरुक्षेत्र तक का सफर किया। इस दिन कुल 364 किमी बाइक चलाई। 7 जून को कुरुक्षेत्र देखते हुए पानीपत पहुंचा। यहां पानीपत के युद्धस्थलों को देखने के बाद आगे बढ़ा। पानीपत के बाद जींद, राखीगढ़ी, हांसी होते हुए भिवानी पहुंचा। इस तरह इस दिन 283 किमी की दूरी तय की। 8 जून को भिवानी के पास हड़प्पा सभ्यता का स्थल मीतात्थल देखा। मीतात्थल के बाद भिवानी वापस आया। फिर लोहारु, झुंझनू, खंडेला, खाटूश्यामजी, जयपुर, किशनगढ़ होता हुआ अजमेर पहुंचा। सफर के 10 वें दिन सुबह 7 बजे से रात 12 बजे तक 506 किमी बाइकिंग की। अब आगे..

राजस्थान के गावों में रहट की सहायता से अभी भी कुंए से निकाला जाता है पानी।

3850 किमी का इस तरह किया 12 दिन में बाइक से अकेले सफर। वह भी 100 सीसी की TVS Sports बाइक से ।

आॅफिस से 8 दिन की छुट्टी ली थी जो पूरी हो चुकी थी। अब तेजी से वापस भोपाल पहुंचना था। इसलिए बिना आलस के रात को 1 बजे सोने के बाद  सुबह 5 बजे उठ गया। जल्दी से नहाकर तैयार हुआ और फिर सुबह 5.45 पर बाइक निकाल ली। अगली मंजिल पुष्कर थी जहां ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर बना हुआ है।






अजमेर से पुष्कर पहुंचने के लिए अरावली पर्वत को पार करना होता है। अरावली पर्वत रेगस्तानी हवाओं को अजमेर शहर में आने से राेकता है। पुष्कर से रेगिस्तान शुरु हो जाता है।




सुबह 6.15 पर पुष्कर पहुंच गया। वहां पर पुष्कर के सरोवर में स्नान किया। 







पुष्कर के उद्भव का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है। कहा जाता है, ब्रह्मा ने यहां आकर यज्ञ किया था। हिंदुओं के प्रमुख तीर्थस्थानों में पुष्कर ही एक ऐसी जगह है जहाँ ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है। यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। हजारों हिन्दु लोग इस मेले में आते हैं। व अपने को पवित्र करने के लिए पुष्कर झील में स्नान करते हैं।

झील में स्नान कर फिर ब्रह्माजी के मंदिर के दर्शन किए। वहां से सवा 7 बजे अजमेर के लिए वापस लौटा। 




अजमेर में शहर घूमते हुए सुबह 7.50 पर ढाई दिन के झोपड़े पर पहुंचा।









अढ़ाई दिन का झोपड़ा एक मस्जिद है जिसके पीछे एक रोचक कथा है। ऐसा माना जाता है कि यह संरचना अढ़ाई दिन में बनाई गई थी। यह भवन मूल रूप से एक संस्कृत विद्यालय था जिसे मोहम्मद गोरी ने 1198 ई. में मस्जिद में बदल दिया था।12वीं सदी के अंतिम दशक में मुहम्मद गोरी ने तराईन के युद्ध में महाराजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर दिया और उसकी फौजों ने अजमेर में प्रवेश के लिए कूच किया। तब गोरी ने वहां नमाज अदा करने के लिए मस्जिद बनाने की इच्छा प्रकट की और इसके लिए 60 घंटे का समय दिया। तब इस मंदिर को ढाई दिन में मस्जिद बना दिया। इस तरह इसका नाम अढाई दिन का झोपड़ा पड़ा। इसका स्थापत्य हिन्दू व जैन मन्दिरों के अवशेषों से तैयार है। यह मस्जिद एक दीवार से घिरी हुई है जिसमें 7 मेहराबें हैं, जिन पर कुरान की आयतें लिखी गई हैं। हेरात के अबू बकर द्वारा डिजाइन की गई यह मस्जिद भारतीय- मुस्लिम वास्तुकला का एक उदाहरण है।









ढाई दिन की मस्जिद के देखने के बाद आगे चला और मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के पास पहुंचा।


'ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मक़बरा', जिसे 'अजमेर शरीफ' के नाम से भी जाना जाता है, के प्रति हर धर्म के लोगों की अटूट श्रद्धा है। इस दरगाह पर हर रोज हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शनों के लिए आते हैं और मन्नत माँगते हैं। वे मन्नत पूरी होने पर चादर चढ़ाने आते हैं। कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर आगरा से पैदल ही चलकर ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शनों के लिए आया था। 

इस दरगाह में विश्व भर से सभी धर्मों के लोग मन्नत मांगने आते हैं लेकिन इतने पास होते हुए भी मैं इस दरगाह के अंदर नहीं गया। शायद इसका कारण ये हो सकता है कि मैंने इतिहास,भूगोल और विज्ञान को अच्छे से पढ़ा है। इसलिए कई वास्तिकताएं मेरे जहन में रहती हैं।





इसके बाद सुबह सवा 8 बजे होटल नारायणदीप में वापस आ गया और 15 मिनट बाद ही सामान समेट कर आगे के सफर के लिए तैयार हो गया। 






9 बजे तक मैं एक्सप्रेस हाइवे पर था जहां से अगली मंजिल कुंभलगढ़ फोर्ट थी। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों को देखते हुए हाइवे पर आगे बढ़ा जा रहा था। दोपहर साढ़े 10 बजे तक धूप बहुत तीखी हो गई थी। इसलिए गाड़ी को थोड़ी देर एक चाय की दुकान पर रोका। थोड़ी देर यहां रुकने के बाद फिर सफर पर चल दिए। दोपहर 11.50 पर एक सड़क के किनारे एक माइल स्टोन को देखकर बड़ा अचरज हुआ।  उसके एक तरफ लिखा नार्थपोल और न्यूयार्क की दूरी लिखी थी और दूसरी तरफ  लंदन, न्यूयार्क के बारे में लिखा था और ताज्जुब की बात थी कि इन जगहों की तुलना किसी देवगढ़ जगह से की गई थी जो यहां से 4 किमी की दूरी पर था। 










थोड़ा आगे बढ़ा तो बहुत देर बाद मुझे पानी को कोई तालाब नजर आया। इस तालाब पर डेम बना हुुआ था लेकिन पानी छोड़ने की जगह नहीं बनाई गई थी। बस एक छोटी से नाली बनाकर पानी की निकासी रखी गई थी। 





थोड़ा आगे जाने पर महाराणा प्रताप से संबंधित एक जगह मेवा का मथारा नाम की जगह का बोर्ड आया। इस जगह के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन फिर भी उसे देखने के लिए चल दिया। रास्ता पूछते-पूछते 12.15 पर वहां पहुंचा। बाहर से गेट लिया हुआ तो दूर से ही इस जगह काे देखा। दूर एक पहाड़ी पर महाराणा प्रताप की प्रतिमा बनी हुई थी। बाद में इस जगह के बारे में पता किया तो सामने आया कि अकबर से युद्ध में हारने के बाद महाराणा प्रताप ने इसी जगह को सबसे पहले जीता था और बाद में पूरा मेवाड़, सिर्फ चित्तौड़गढ़ को छोड़कर। 






यहां से आगे बढ़ा तो मुझे सड़क के किनारे ही कई कुंए नजर आए जो एक खास तरह के पैटर्न से बने थे। ऐसे ही एक कुंए के पास पहुंचा और आसपास देखा कि इस वीराने और भरी गर्मी में भी इन कुंओं में पानी भरा था लेकिन अब ये उजाड़ हो गए हैं। 







यहां से थोड़ी दूरी पर ही गोमती नदी मिली। यहां से कुंभलगढ़ जाने का रास्ता कटता था जो यहां से 40 किमी की दूरी पर था। 




कुंभलगढ़ के रास्ते में चारभुजा धारी जगह आई और फिर कुंभलगढ़ फोर्ट। फोर्ट का रास्ता वैसे तो दुर्गम था लेकिन जब मैं केदारनाथ के रास्ते पर्वतों पर 600 किमी बाइक चला चुका था तो ये रास्ता कुछ भी कठिन नजर नहीं आया। 








दोपहर 1.55 बजे कुंभलगढ़ फोर्ट के गेट पर पहुंच गया। वहां बाइक खड़ी की और फिर टिकट लेने के लिए गया। टिकट खिड़की पर मैंने अपना बैग रख दिया क्योंकि अंदर बहुत घूमना था। 




कुम्भलगढ़ का दुर्ग राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है। उदयपुर से 70 किमी दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 किमी व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यशस्वी महाराणा कुम्भा की सूझबूझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है। इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के द्वितीय पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर 1443 से शुरू होकर 15 वर्षों बाद 1458 में पूरा हुआ था। दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था। वास्तुशास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर, जलाशय, बाहर जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महलमंदिर, आवासीय इमारतें, यज्ञ वेदी, स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है। इस किले को 'अजेयगढ' कहा जाता था क्योंकि इस किले पर विजय प्राप्त करना दुष्कर कार्य था। इसके चारों ओर एक बडी दीवार बनी हुई है जो चीन की दीवार के बाद दूसरी सबसे बडी दीवार है।

महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था। महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था। हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे।







इस फोर्ट में महाराणा प्रताप की जन्म स्थली देखी और फिर इस फोर्ट का आकर्षण बादल महल। इस महल के एक कमरे में दूरबीन जैसी चीज खिड़की पर आज भी लगी है। इन खिड़कियों की बनावट इस तरह है कि हवा किसी भी दिशा में चले, कमरे में हवा का प्रवेश बना ही रहता है। 






















फोर्ट में कुछ ही चीजों को देख पाया लेकिन ये भी सुकून था कि चीन की दीवार तो नहीं देखी लेकिन विश्व की दूसरी बड़ी दीवार तो यहां देख ही ली। वाकई में अद्भुत नजर आया कुंभलगढ़ फोर्ट। दोपहर 2.55 पर फोर्ट छोड़कर आगे चल दिया। 






अब आगे नॉन स्टॉप गाड़ी चलाई। करीब डेढ़ घंटे बाइक चलाने के बाद एक जगह अचानक  कुछ देख कर रुक गया। एक कुंए से रहट की सहायता से कुछ महिलाएं पानी निकाल रही थी। पहले तो ये दूर से देखता रहा लेकिन कैमरा संभाला और उनके पास पहुंच गया। पहले तो महिलाएं झेंप गई और पानी निकालना छोड़ दिया और मेरे जाने का इंतजार करने लगी। लेकिन मैंने उनसे कहा कि मुझे पानी निकालते हुए कुछ फोटो निकालने हैं तो फिर वे रहट को चलाने लगीं।  









यहां से आगे बढ़ा और करीब 5 बजे महाराणा प्रताप संग्रहालय पहुंचा जहां उनसे संबंधित चीजों को संभाल कर रखा गया है। 





आगे की यात्रा का विवरण अगले लेख में....



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