Saturday, September 24, 2016

6 महीने बर्फ में दबा रहता है केदारनाथ मंदिर, 3 साल पहले आई जलप्रलय के बाद भी अटल है इसका स्ट्रक्चर

        केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा


                                      PART-8 रुद्रप्रयाग से केदारनाथ की यात्रा

24 सितंबर, भोपाल।  भोपाल से 30 मई को यात्रा पर निकलने के बाद 30 की रात को ही 231 किमी की दूरी तय कर चंदेरीपहुंचा। उसके बाद दूसरे दिन 31 मई को 371 किमी की दूरी तय कर आगरा पहुंचा। 1 जून को आगरा से हस्तिनापुर 319 किमी की दूरी तय कर पहुंचा। 2 जून को 305 किमी की यात्रा कर हस्तिनापुर से रुद्रप्रयाग पहुंचा। 3 जून को रुद्रप्रयाग से चला और 77 किमी दूर गौरीकुंड पहुंचा। यहां से केदारनाथ मंदिर की 16 किमी की चढ़ाई शुरू की। अब आगे..


दोपहर में 3.30 बजे केदारनाथ घाटी का बदलता मौसम। बैकग्राउंड में पुराना रास्ता दिखाई दे रहा है जो 2013 की त्रासदी  में ढहने के बाद बंद हो गया है।

रास्ते में जमी बर्फ के ऊपर से निकलते हुए आगे बढ़ा। ढाई बजे फिर एक पड़ाव आया। रामबाड़ा के बाद अब यात्रा कठिन हो गई थी। नया रास्ता बनाने में ये ध्यान ही नहीं रखा गया कि खड़ी चढ़ाई ज्यादा हो गई है। चूंकि पहले रास्ता केदारनाथ घाटी में था, उसमें ज्यादा चढ़ाई नहीं थी लेकिन अब वह रास्ता खत्म होने के बाद पहाड़ पर होकर रास्ता बनाया गया है। 


थकान होने पर यहां रुकना पड़ा।
गर्मा गरम चाय की चुस्की।
बस अब कुछ ही दूर है मंजिल।

यहां से आगे बढ़ा। तीन बजे के बाद अब मौसम बदलना शुरू हो गया। आसमान में घने बादल छाने लगे। अब ये चिंता होने लगी कि बरसात से बचने के लिए तो कुछ है ही नहीं। और यदि मौसम बिगड़ा तो मंदिर तक पहुंचना कठिन हो जाएगा। ठंड भी अब बढ़ती जा रही थी। रास्ते में उस तबाही के चिन्ह भी दिखते जा रहे थे जिसने केदारनाथ घाटी को श्मशान बना दिया था। 


मौसम की करवट। बैकग्राउंड में पुराना रास्ता और मंदाकिनी नदी की घाटी।
रास्ते में मिली बर्फ।
इस तरह बहते-बहते जम जाती है बर्फ।

बर्फ पर चलते घोड़े जो अक्सर यहां बिदक जाते हैं।



साढ़े 4 बजे पहाड़ के टॉप पर पहुंच गए। अब यहां से सीधे चलते हुए जाना था। चढ़ाई खत्म हो चुकी थी। तभी पता चला कि घोड़े पर बैठकर आ रहे एक बुजुर्ग की मौत हो गई। घोड़े ने उसे चढ़ाई पर गिरा दिया, सिर फटने से उसकी मौत वहीं हो गई।

6 घंटे की चढ़ाई के बाद  13500 फीट की ऊंचाई पर पहुंचा। थककर बदन चूर हो चुका था।
सोने से काम नहीं चलने वाला। उठा फिर आगे चल दिया।

पौने पांच बजे केदारनाथ के बेसकैंप पहुंचा। अब यहां से मंदिर डेढ़ किमी बचा था। लेकिन अब आगे बढ़ने की हिम्मत खत्म हो चुकी थी। वहीं रुकने की व्यवस्था की। ढाई सौ रुपए में एक टेंट मिल गया जिसमें 12 लोग रुके हुए थे। सीधे टेंट में पहुंचा और स्लीपिंग बैग के अंदर घुस गया। शरीर इतना थक गया था कि मंदिर के दर्शन करने की हिम्मत नहीं हुई। कब गहरी नींद आ गई पता ही नहीं चला। 

केदारनाथ का बेसकैंप।

यहां से कुछ लोग मंदिर के दर्शन करने के लिए आगे चले गए तो कुछ यहीं रुक गए।

इस कैंप में बनी एक हट में हमने भी जुगाड़ लगाई और यहीं रुक गए।

ढाई सौ रुपए में हट भी मिली और स्लीपिंग बैग भी। सबसे पहला काम सोने का किया।

अचानक शाम को 7 बजे नींद खुली। शरीर कह रहा था कि सोते रहो लेकिन मन और आत्मा कह रही थी कि शाम को ही दर्शन कर लिए जाएं। अाखिर शरीर की हार हुई और आलस और थकान त्यागते हुए उठा और डेढ़ किमी की दूरी तय करने चला। अब यहां से नीचे उतरना था, इसलिए आधा घंटे में ही मंदिर पहुंच गया।

शाम के 7 बजे नींद खुल गई। अब मंदिर जाने की तैयारी।
सामने दिखाई दे रहा है केदारनाथ मंदिर और आसपास की दुकानें।
मंजिल पर पहुंचकर चेहरे पर आई मुस्कान।


मकानों का पुननिर्माण हो रहा है।

यहां जब लाइन में लगा तो पंडा सबसे पूछते आ रहे थे कि वह कहां से आए हैं। जैसे ही उन्हें पता लगता कि वह उनके एरिए से हैं तो वह पोथी निकालकर उस जजमान के साथ सेट हो जाते। फिर जजमान सबकुछ पंडे के अनुसार ही करते। 

मंदिर में दर्शन के लिए लगी लाइन।
बर्फ से घिरे पहाड़ों के बीच केदारनाथ मंदिर।

ज्यादा भीड़ नहीं थी इसलिए 20 मिनट में ही दर्शन हो गए। एेतिहासिक और पौराणिक इस मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही एक शांति का अनुभव हुआ। 12 में से 8 ज्योर्तिलिंग के दर्शन पूरे हुए। शाम को आरती भी मिल गई। भले ही केदारनाथ मंदिर के चारों तरफ बर्फ थी लेकिन मुझे एक शर्ट में भी ज्यादा ठंड का अहसास नहीं हुआ। मंदिर में पांचो पांडव और द्रोपदी की प्रतिमा थी। यहां प्रतिमा पर घी चढ़ाने का चलन है। शिवलिंग भी गोल न होकर एक चट्टान के रूप में है। 

रात में जगमगाता केदारनाथ धाम और भक्तगण।
मंदिर के दर्शन कर बाहर निकला।
मंदिर के बाहर बैठे साधु।
केदारनाथ मंदिर।

मंदिर के चारों तरफ त्रासदी के अवशेष फैले हुए हैं। दाे मंजिल के मकान में एक मंजिल पूरी तरह से मलबे के नीचे घुसी हुई है। मंदिर के पीछे आदि शंकराचार्य की समाधि का नामो-निशान मिट चुका है। 2013 की त्रासदी के बाद 2014 और 15 में कम ही लोग आए। इस बार भक्तों ने आना शुरू किया है। 
अभी भी घर मलबे में दबे पड़े हैं। 
इस मकान की एक मंजिल मलबे में धंसी हुई है।

कुछ ऐसी बदली केदारनाथ मंदिर के आसपास की तस्वीर...

17 जून 2013 की सुबह यहां आई थी जलप्रलय। हर तरफ लग गया था मलबे का ढेर। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 8 दिन में ही 5 हजार लोगों के मरने की खबर लगी थी जबकि हकीकत में ये संख्या बहुत ज्यादा थी।

इस तरह बदल गया था केदारनाथ मंदिर के आसपास की सीन।

त्रासदी से पहले ऐसा दिखता था केदारनाथ धाम।

त्रासदी के बाद ऐसी हो गई थी हालत।

4 जून 2016 की स्थिति में केदारनाथ मंदिर।

इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल

5 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल ‍दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।

मंदिर का निर्माण इतिहास 
पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। 

सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था
यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था, लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।

अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था।

मंदिर के कपाट खुलने का समय 
दीपावली महापर्व के दूसरे दिन (पड़वा) के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।

6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी
6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य की 6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी ही साफ-सफाई मिलती है जैसे छोड़कर गए थे।

आगे का लेख अगले अंक में ...

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