Monday, September 9, 2019

नींद के झोंके से पलट गई बाइक, विल पॉवर की ताकत से हुआ चमत्कार

5-6 मई 2013...बाइक से सोमनाथ से द्वारका तक का सफर, जिसने जिंदगी बदल दी। इस दिन दो घटना हुईं जिनके सबक सभी के लिए हैं। पहली यह कि तमाम सावधानियों के बाद भी दुर्घटना होती हैं और दूसरी आस्था, हर कष्ट की दवा है। 


मैं 1 मई से 11 मई तक भोपाल से गुजरात की 3433 किमी की बाइक यात्रा पर अकेले निकला था। 4 मई तक मैं भोपाल से सोमनाथ पहुंच चुका था। 5 मई को सुबह 11 बजे मैंने सोमनाथ छोड़ दिया और आगे की यात्रा पर चल दिया। भालका तीर्थ, वेरावल होते हुए साढ़े 12 बजे चोरवाड़ में था जहां समंदर किनारे जूनागढ़ महाराज का पैलेस बना था और जहां का पानी सफेद झाग की तरह नजर आ रहा था। इतना मनोरम और सुंदर दृश्य देखकर लग रहा था कि जैसे मैं स्वर्ग में आ गया लेकिन कुछ ही घंटों बाद जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति मेरा इंतजार कर रही थी। 


चोरवाड़ से आगे निकला तो मांगरोल पहुंचा। यहां पर पानी के छोटे जहाज भारी मात्रा में बनाए जाते हैं। मैं भी उन्हीं रास्तों में भटक गया और बड़ी मुश्किल से बाहर आ सका। वहां से थोड़ा आगे निकला तो कांधलीकृपा पर भोजन किया। तब तक दोपहर के सवा दो बज चुके थे। वहां मैंने थोड़ा हल्का खाना खाया क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि दोपहर में नींद आ सकती है। थोड़ा रायता और नमकीन चावल खाकर आगे निकला और 3 बजे माधवपुर पहुंचा। यहां समंदर और सड़क साथ-साथ चल रहे थे। बहुत ही रोमांचक सफर लग रहा था। 

जैसे ही समंदर और सड़क जुदा हुई, वैसे ही कंटीली झाड़ियों की रास्ता शुरू हो गया। तब मुझे नींद के झोंके आने लगे। गरमी तेज पड़ रही थी और बाइक का सफर कष्टकारी साबित हो रहा था। बाइक भी 70 की स्पीड से चल रही थी। तभी मुझे नींद के तेज झोंके आए। मैंने सोचा कि कहीं रुकते हैं, स्थिति खतरनाक होती जा रही है लेकिन 10 किलोमीटर तक वहां एक पेड़ या कोई दुकान तक नजर नहीं आई, जहां बाइक रोक सकूं। छांव के इंतजार में आगे बढ़ता जा रहा था कि तभी कुछ सेकंड के लिए मेरी आंखें बंद हो गईं। जब आंखें खुली तो बाइक सड़क के किनारे रेत में उतर चुकी थी। 


बाइक को सड़क पर लाने का प्रयास किया लेकिन वह स्लिप हो गई और करीब 200 मीटर तक सड़क पर घिसटती चली गई। सिर में हेलमेट था जिसका कांच टूट चुका था। पैर और हाथ बाइक के नीचे दबे थे जिनमें से खून बहने लगा था। किस्मत से मेरी बाइक ऐसी जगह स्लिप हुई जिसके सामने ही दुकान और कुछ घर थे। सभी लोग दौड़कर आए और मुझे उठाया और दुकान तक ले गए। उस समय मुझे अपनी चोट से ज्यादा इस बात का दुख हो रहा था कि बाइक का तो काम तमाम हो गया। अब इसे ट्रेन में रखवाकर भोपाल भिजवानी पड़ेगी और यात्रा के दुखद अंत की टीस चुभती रहेगी। 

जिस जगह एक्सीडेंट हुआ वहां से पोरंबदर और माधवपुर 40-40 किलोमीटर पर थे। यानी एंबुलेंस तक आने में एक घंटा कम से कम लगना था। तब तक खुन निकलने पर गंभीर स्थिति भी हो सकती थी। पैर में फ्रैक्चर भी हो सकता था। ऐसे में विल पॉवर का इस्तेमाल किया और वहां लोगों से पूछा कि बाइक स्टार्ट हो रही है या नहीं। बाइक की किक तो मुड़ चुकी थी और पैर के ब्रेक भी खराब हो चुके थे। ऐसे में सेल्फ स्टार्ट से बाइक चालू तो हो गई लेकिन अब उसे चलाना बड़ा दुष्कर काम था। 20 मिनट में ही निर्णय लिया कि अब हाथ के ब्रेक के सहारे ही बाइक को पोरबंदर लेकर चलते हैं। वहां अस्पताल में इलाज करवाएंगे। 

पैर के घाव में साफी बांधी और हाथ के घाव पर रुमाल। घाव के कारण चप्पल पहन नहीं सकते थे इसलिए नंगे पैर ही बाइक पर मोर्चा संभाला और आगे चल दिए। सवा 4 बजे एक्सीडेंट के घटना स्थल से 40 किमी दूर पोरबंदर के एक सरकारी अस्पताल में पहुंचा। रविवार की वजह से अस्पताल बंद था और इमरजेंसी यूनिट ही खुली थी। किसी तरह बाइक को वहां खड़ी की और लंगड़ाते हुए अस्पताल के अंदर दाखिल हुआ तो वहां का स्टॉफ दौड़ते हुए आया।


मेरी हालत देखकर वह तुरंत मुझे इमरजेंसी यृनिट में ले गए और इलाज शुरू कर दिया। घावों की ड्रेसिंग की गई और एक सीनियर डॉक्टर को बुलवाया गया। उन्होंने हाथ-पैर चेक किए और कहा कि फ्रैक्चर नहीं है लेकिन अंदरूनी चोट ज्यादा है। इंजेक्शन लगाकर दवाई दे दी। उसके बाद बरामदे में बाहर लेटकर आधा घंटे आराम किया। अब सामने दो रास्ते थे वापस भोपाल या फिर इसी चोट में आगे की 6 दिन की यात्रा जो शारीरिक रूप से काफी कष्टदायक होने वाली थी। मैंने कहा कि जब यहां तक आ गए गए हैं तो वापस तो नहीं जाएंगे। आगे चलेंगे। 

बस फिर उठे और पोरबंदर में गांधी के जन्म स्थल पर पहुंचे और वहां घूमने लगे। शाम को 6 बजे फिर हिम्मत की और वहां से 100 किमी दूर द्वारका के लिए प्रस्थान किया जहां साढ़े आठ बजे तक हमने दस्तक दे दी थी। 


असली परीक्षा अब शुरू हुई। तीसरी मंजिल पर लॉज में कमरा मिला। कमरे में सामान पटका और फिर बाहर निकले लेकिन यह क्या, पैर तो उठ ही नहीं पा रहे। गाड़ी पर चलने की वजह से वह चोट के कारण वह भारी हो गए। मैं फिर वहीं के एक सरकारी अस्पताल पहुंचा तो अभी खुला हुआ था। 

वहां एक कंपाउंडर मिला और उसने फिर मेरे घाव की ड्रेसिंग की। उसने कहा कि इस घाव में तुम आगे चल नहीं पाओगे, यह सड़ जाएगा और पैर भी खराब हो सकता है। तभी वह बोला कि ऐसा करना कि द्वारकाधीश मंदिर के पास नदी समंदर में मिलती है। उसमें नहा लेना, घाव भी ठीक हो जाएगा और किसी दवा की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। मैंने कहा कि तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? ऐसे घाव में पानी में उतरने की बात कर रहा है, घाव पक नहीं जाएगा। वह बोला कि ऐसा कुछ नहीं होगा। यहां का पानी ही ऐसा है जिसमें हर तरह का घाव ठीक हो जाता है। 

मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और थोड़ा सा बाजार घूमने के बाद आकर सो गया। सुबह 7 बजे की आरती अटैंड करनी थी। सुबह 6 बजे उठा तो पलंग से उतरने की कोशिश की लेकिन यह क्या, पैर तो कई मन भारी हो चुके थे। किसी तरह नीचे उतरा और बाइक को स्टैंड से उतारा। पैर में घाव था तो नंगे पैर ही बाइक उठाई और किसी तरह द्वारकाधीश मंदिर पहुंचा। नदी में स्नान कर के दर्शन के लिए जाना था। हिम्मत करके सारे घाव से पट्टी निकालकर समंदर और नदी के संगम में उतर गया। घाव पर जैसे ही नमक के पानी का स्पर्श हुआ, दर्द की लहर पूरे शरीर में प्रवेश कर गई। वहां तीन डुबकी लगाईं और बाहर निकला लेकिन यह तो चमत्कार सा था। अब न तो दर्द था और न थकान। जहां पैदल चलने में कष्ट हो रहा था, वहीं अब सीढ़ियां भी बड़े आराम से चढ़ रहा था। 

सुबह की आरती में भीड़ के साथ ही शामिल हुआ। उसके बाद आगे की यात्रा घाव पर बिना पट्टी लगाए और बिना दवाई खाए की। जब 6 दिन बाद भोपाल लौटा तो हाथ और पैर के घाव भर चुके थे। 

Shyam Sundar Goyal
Journalist
Delhi
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