केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की बाइक से 3850 किलोमीटर की अकेले रोमांचक यात्रा
PART-13 कुरुक्षेत्र से पानीपत तक का सफर
10 अक्टूबर, भोपाल। भोपाल से 30 मई को यात्रा पर निकलने के बाद 30 की रात को ही 231 किमी की दूरी तय कर चंदेरी पहुंचा। उसके बाद दूसरे दिन 31 मई को 371 किमी की दूरी तय कर आगरा पहुंचा। 1 जून को आगरा से हस्तिनापुर 319 किमी की दूरी तय कर पहुंचा। 2 जून को 305 किमी की यात्रा कर हस्तिनापुर से रुद्रप्रयाग पहुंचा।
3 जून को रुद्रप्रयाग से चला और 77 किमी दूर गौरीकुंड पहुंचा। यहां से केदारनाथ मंदिर की 16 किमी की चढ़ाई शुरू की। 3 जून की शाम केदारनाथ धाम पहुंच गया। 4 जून को वापस केदारनाथ से चला। 16 किमी की पैदल यात्रा के बाद 198 किमी बाइक चलाकर उत्तराखंड के शिवपुरी में आया। यहीं नदी के बीचों-बीच कैंप में ठहरा। 5 जून को शिवपुरी में रिवर राफ्टिंग करने के बाद नीलकंठ महादेव, ऋषिकेश, हरिद्वार होते हुए 198 किमी बाइक चलाकर देहरादून पहुंचा। 6 जून का देहरादून से चला। दोपहर में पावंटा साहिब पहुंचा। फिर वहां से चंडीगढ़ होते हुए कुरुक्षेत्र तक का सफर किया। इस दिन कुल 364 किमी बाइक चलाई।
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जावेद और आसिफ बने पानीपत में गाइड। दिखाया पानीपत के तीसरे युद्ध का स्मारक। |
7 जून 2016, आज सफर का 9वां दिन था। इस समय मैं कुरुक्षेत्र में था। रात को खाना खाकर आने में लेट हो गया था। कमरा एसी होने से नींद भी जमकर आई और फिर उठने में लेट हो गया। सुबह 7.20 बजे नींद खुली। फ्रेश होकर फिर चल दिए कुरुक्षेत्र घूमने।
यहां के ब्रह्म सरोवर के बारे में काफी सुना था। ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यज्ञ करने के बाद कुरुक्षेत्र से ही सृष्टि बनाने की शुरूआत की थी और ब्रह्म सरोवर इस सृष्टि का उद्गम माना जाता है। ब्रह्म सरोवर से पहले सन्निहत सरोवर भी है जिसे छोटा सरोवर कहते हैं।
इसके बारे में एक और कहानी है जो 'पानीपत' किताब में मिलती है। मराठों की सेना 1761 में जब अहमदशाह अब्दाली से भिड़ने गई तो उस समय बहुत से महाराष्ट्रीयन परिवार उनके साथ थे। उन परिवारों ने ब्रह्म सरोवर में स्नान की जिद की लेकिन इसमें खतरा भी था। यदि अब्दाली, उनसे पहले दिल्ली पहुंच जाता था तो ये खतरनाक था। लेकिन किस्मत को यही मंजूर था। मराठा सेना ब्रह्म सरोवर में स्नान करने गई तो वापस दिल्ली नहीं लौट पाई। अब्दाली उनसे पहले ही दिल्ली का रास्ता रोककर खड़ा हो गया था। यही कारण है कि मराठा सेना को रसद न मिलने से भूखा मरना पड़ा। जब अति हो गई तो 14 जनवरी 1761 मकर सक्रांति के दिन युद्ध हुआ और आधे दिन में ही मराठों को पराजय का सामना करना पड़ा।
पानीपत की भूमि ने कभी अपनों को साथ नहीं दिया
इसी किताब में एक प्रसंग ये भी आता है कि जब मराठे यहां अब्दाली से युद्ध के लिए डेरा डाले हुए थे तो मराठों के पेशवा सदाशिव, एक गांव से वाले से मिलते हैं। तब वह उनसे कहता है कि तुम किस बात का घमंड करते हो, इस भूमि ने कभी अपनों का साथ नहीं दिया है। यह दगाबाज भूमि है। और ये सच भी साबित हुआ। पानीपत के पहले युद्ध में भारत का शासक इब्राहिम लोदी, बाबर से हारा। दूसरे युद्ध में भारत का शासक हेमू, अकबर से हारा। तीसरे युद्ध में भारत के शासक मराठा, अब्दाली से हारे। इसके बाद फिर कभी इस भूमि में युद्ध नहीं हुआ।
इसका कारण ये भी हो सकता है कि महाभारत काल में पानीपत भी युद्धक्षेत्र में शामिल था। उस समय भी भारत के शासक कौरवों को विशाल सैन्य शक्ति होने के बाद भी पांडवों से हार का सामना करना पड़ा था।
ब्रह्म सरोवर हरियाणा राज्य के कुरुक्षेत्र ज़िले में स्थित है। कुरुक्षेत्र के जिन स्थानों की प्रसिद्धि संपूर्ण विश्व में फैली हई है, उनमें ब्रह्म सरोवर सबसे प्रमुख है। हरियाणा के इस तीर्थ स्थान के विषय में विभिन्न प्रकार की किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। इस तीर्थ के विषय में महाभारत तथा वामनपुराण में भी उल्लेख मिलता है, जिसमें इस तीर्थ को परमपिता ब्रह्मा से जोड़ा गया है।
ब्रह्म सरोवर भी सुबह से ही काफी भीड़ लगी हुई थी। वहां के घाटों के नाम पांडवों के नाम पर रखे हुआ हैं जैसे भीम घाट, अजुर्न घाट, द्रोपदी घाट। मुझे भी सौभाग्य मिला कि इस कुंड में स्नान कर सकूं।
यहां से स्नान करने के बाद आगे बढ़ा और प्राचीन थानेश्वर के खंडहरों से होता हुआ शेख चेहली के मकबरे पर पहुंचा। थानेश्वर को राजधानी बनाकर ही 606 से 646 ईसवीं तक सम्राट हर्षवर्धन ने उत्तर भारत पर राज्य किया। शेख चेहली का मकबरा सुबह 8.30 बजे तक खुला नहीं था इसलिए आगे बढ़ गया।
पौने 9 बजे स्थानेश्वर महादेव मंदिर पहुंचा, जिसके नाम पर इस शहर का नाम थानेश्वर पड़ा। थानेश्वर के वर्धन सम्राटों को इस जगह पर अगाध श्रद्धा थी। इस मंदिर की ख्याति नगर संरक्षक देवता के रूप में थी। मान्यताओं के अनुसार महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण से मिलकर भगवान शिव की पूजा की थी और विजयी होने का वर लिया था।
इसी मंदिर कैंपस में एक गुरद्वारा और कई मंदिर भी हैं। पास में ही स्थाणु वट वृक्ष है जिसे महाभारत काल का माना जाता है।
यहां से आगे चला तो रास्ते में हर्ष का टीला मिला। यहीं से एक समय सारे उत्तर भारत का शासन चलता था। इस टीले के चारों तरफ से बाइक से चक्कर लगाया। काफी बड़े एरिए में ये टीला है जिसमें एक पूरे साम्राज्य के अवशेष दबे हैं। इसकी कुछ झलक ही अभी दिखाई देती है।
राजा हर्ष का टीला, कुरूक्षेत्र शहर के बाहरी इलाके में 1 किमी. की लम्बाई में 750 मीटर की चौड़ाई तक फैला हुआ है। यह पुराना ऐतिहासिक टीला, 15 - 18 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है जहां से जमीन के अंदर से अमूल्य संपदा प्राप्त होती है जो यहां का ऐतिहासिक अवशेष है।
भारतीय पुरातत्व विभाग ने यहां उत्खनन का कार्य किया है जिसमें इस टीले पर अब तक 6 सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कालों से संबंधित पुरावशेषों का पता चला है। खुदाई के दौरान, राजपूत, गुप्त, कुषाण, गुप्त काल के बाद, बर्धन, सल्तनत और मुगल काल के अवशेष मिले है।
यहां की खोज में पाए जाने वाले साम्राज्यों में कुषाण और गुप्त काल के बाद का समय सबसे महत्वपूर्ण होता है। कुषाण अवधि के दौरान पाएं जाने वाले सामानों में पेंटेड ग्रेवेयर भी शामिल है जो गुप्त काल के साथ जुड़ा हुआ है जिसमें पॉल्स्डि रेडबेयर भी शामिल है। इस टीले से दो काल की ईटें, खोज के दौरान मिली है।
टीला देखने के बाद अब फिर से ज्योतिसर देखने के लिए चला। रास्ते में भीष्म कुंड मिला जहां बाणों की शैय्या पर उन्हें पानी पिलाया गया था।
यहां अभी भी लोगों की आस्था बनी हुई है। वह उस कुंड से पानी लेकर आते हैं जो अर्जुन के बाणों से बना था। फिर उस पानी को भीष्म मंदिर में चढ़ाते हैं।
यहां से आगे चला और 9.25 पर ज्योतिसर पहुंच गया। यहां रात में भी आया था लेकिन अंधेरा होने की वजह से कुछ देख नहीं पाया था। यहां कुछ देर रुका और फिर वापस गुरुद्वारे आ गया।
सुबह 10 बजे कुरक्षेत्र से चला और 11 बजे करनाल पहुंचा। चलते-चलते गर्मी लगने लगी तो एक चाय और खरबूजे की दुकान पर रुक गया। यहां सड़कों के किनारे खरबूजे की काफी दुकानें लगी हुई थी।
यहां चायवाले शायद मोदी से ज्यादा प्रभावित था। उसने अपनी दुकान पर एक बोर्ड लगाया हुआ था। उसपर लिखा था कि यदि किसी ने कूड़ेदान का उपयोग नहीं किया तो वह 5 रुपए उससे ले लेगा। वह खरबूजे और चाय की दुकान एक साथ चला रहा था।
इस शख्स से काफी देर बातचीत हुई और यहां के बारे में बातचीत की। मैंने उसे अपने मोबाइल से फोटो खींचने के लिए दिया तो वह बोला कि एपल का सेट है तो मैंने कहा नहीं। उसने कहा कि आप तो इस मोबाइल को रखो, मैं अपने से फोटो खींच आपको वाट़्सएप कर दूंगा। उसने अपना 48 हजार रुपए का मोबाइल निकाला और उससे फोटो खींचे।
मैंने उससे कहा कि चाय की दुकान के अलावा भी कोई काम है क्या ? वह बोला कि चाय और खरबूजे की दुकान ही चलाता हूं। यहां तो जमीन की कीमत 5 करोड़ रुपए प्रति एकड़ है। ये हरियाणा हैं भाई?
करनाल से चलकर सवा 12 बजे पानीपत पहुंचा। यहां सबसे पहले इब्राहिम लोदी के मकबरे गया। यही वह स्थान है जहां 1526 ईसवी में बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच पानीपत का पहला युद्ध हुआ था। यहां लोदी की कब्र बनी हुई है।
यहां से आगे बढ़ा तो देवी मंदिर पहुंचा। इस मंदिर की स्थापना मराठों पानीपत के तीसरे युद्ध से पहले की थी। ये मंदिर 12 बजे बंद हो चुका था इसलिए अंदर नहीं जा सका।
मैं पानीपत के दूसरे और तीसरे युदध स्मारकों को ढूंढने निकला। पहला और तीसरा तो मिल गया लेकिन अकबर और हेमू के बीच जो पानीपत का दूसरा युद्ध हुआ था, वह नहीं मिला। उसे ढूंढ़ते-ढूंढते में गलियों में भटकने लगा। तभी दो बच्चे मिल गए और उनसे पता पूछा। उन्होंने कहा कि चलो हम बताते हैं लेकिन उन्हाेंने भी मुझे बाबर की काबुली बाग मस्जिद लाकर छोड़ दिया।
यहां घूमने के बाद जब बच्चों से पानीपत के तीसरे युद्ध स्मारक के बारे में पूछा तो वह उसे काला आम्ब के नाम से जानते थे। उनमें से एक पहले वहां गया था। वह यहां से करीब 10 किमी दूर था। दोनों बच्चे मुझे पानीपत के तीसरे युद्ध स्मारक के पास ले गए।
वहां एक प्रदर्शनी भी लगी थी और युद्ध का स्मारक भी बना था। वहां एक कुंआ भी थी जिसके बारे में कहा जाता है कि युद्ध के बाद वह खून से भर गया था।
बच्चों से जब काला आम्ब जगह के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ा रोचक जवाब दिया। वह बोले कि पहले कभी यहां काले आम आते होंगे लेकिन अभी तो जी यहां हरे आम आते हैं।
पानीपत का द्वितीय युद्ध उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य (लोकप्रिय नाम- हेमू) और अकबर की सेना के बीच 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में लड़ा गया था।
4 जनवरी 1556 में मुगल शासक हुमायूं का दिल्ली में निधन हो गया और उसके बेटे अकबर ने गद्दी संभाली। उस समय अकबर केवल तेरह वर्ष का था। 14 फ़रवरी 1556 को पंजाब के कलानौर में उसक राज्याभिषेक हुआ। इस समय मुगल शासन काबुल, कंधार, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था। अकबर अपने संरक्षक, बैरम खान के साथ काबुल में कार्यरत था।
1556 में दिल्ली की लड़ाई में अकबर की सेना को पराजित करने के बाद हेमू उत्तर भारत का शासक बन गया था। इससे पहले हेमू ने अफगान शासक आदिल शाह की सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया था।
हेमू वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी का एक हिन्दू था। 1553-1556 के दौरान हेमू ने सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में पंजाब से बंगाल तक 22 युद्ध जीते थे। जनवरी 1556 में हुमायूं की मौत के समय, हेमू बंगाल में था जहाँ एक युद्ध में बंगाल के शासक मुहम्मद शाह को मार कर विद्रोह पर काबू पा लिया था। जब उन्होंने हुमायूं की मौत के बारे में सुना तो उन्होंने अपने सेना नायकों को अपने लिए दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा करने का आदेश दिया। उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया और उत्तरी भारत भर में कई युद्ध जीतते हुए उन्होंने आगरा पर हमला किया। अकबर का सेनानायक वहाँ से युद्ध किए बिना ही भाग खड़ा हुआ। हेमू का इटावा, कालपी और आगरा प्रांतों पर नियंत्रण हो गया। ग्वालियर में, हेमू ने और हिंदुओं की भर्ती से अपनी सेना मजबूत कर ली।
हेमू ने दिल्ली (तुगलकाबाद के पास) की लड़ाई में 6 अक्टूबर को मुगल सेना को हरा दिया। लगभग 3,000 मुगलों को मार डाला। मुगल कमांडर Tardi बेग दिल्ली को हेमू के कब्जे में छोड़, बचे खुचे सैनिकों के साथ भाग गया। अगले दिन दिल्ली के पुराना किला में हेमू का राज्याभिषेक किया गया। मुस्लिम शासन के 350 वर्षों के बाद, उत्तर भारत में फिर से हिंदू शासन स्थापित हुआ। हालाँकि यह भी कुछ ही दिन का मेहमान साबित हुआ।
पानीपत युद्ध स्मारक देखने के बाद 1.20 बजे वहां से निकल दिया। रास्ते में लौटते समय दोनों बच्चों को शहर के पास छोड़ दिया और फिर दैनिक भास्कर आॅफिस पहुंचा, जहां हमारे दोस्त मनोज खाने के लिए इंतजार कर रहे थे।
मनोज कौशिक से अच्छी मुलाकात हुई। खाना खाने के बाद थोड़ी देर ऑफिस में बैठे। वहीं बलजीत भाई खबरों के लिए लैंडलाइन पर लगे हुए थे।
आगे की यात्रा अगले लेख में....
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